Sunday 1 November, 2009

तस्वीरों में सैर संडे बुक बाजार की

इस संडे सुबह उठा, तो किताबों से मिलने का मन हुआ। बस कदम चल पड़े दरियागंज की ओर। साथ में कैमरा भी हो लिया। उस मुलाकात में जो कुछ हुआ...पेश है...













ऐसी ही कुछ मुलाकातें और हैं...अगर आपको ये पसंद आईं, तो उनसे भी मिलवाऊंगा।

(बिना अनुमति तस्वीरों का प्रयोग वर्जित है।)

Thursday 29 October, 2009

क्यों रहें हम भारत के साथ!

श्रीनगर…शाम का वक्त...हसीन गुदगुदाती सी ठंड...डल लेक का किनारा...और मोहब्बत? सही सीक्वेंस तो यही बनता है...लेकिन ऐसा था नहीं...

श्रीनगर…शाम का वक्त...नवंबर की हसीन गुदगुदाती सी ठंड...डल लेक का किनारा...बंदूकें...और उन्हें थामे हरी वर्दी में घूमते फौजी...वे आपको लगातार घूरते रहते हैं...आंखें मिली नहीं कि वे आपके दिमाग में घुस जाते हैं...आपके ख्यालों को चीरफाड़ कर रख देते हैं...किसी साजिश की तलाश में...यानी आपके वजूद पर ही नहीं, ख्यालों पर भी संगीनों का पहरा...यूं संगीनों के पहरे में ख्यालों की चीरफाड़ के बीच मोहब्बत जैसे अल्फाज़ डरकर छिपे रहते हैं...

मुझे लगा यही तो हो रहा है कश्मीर के साथ...कश्मीरियत के साथ...वहां कैसे पनपेगी मोहब्बत...देश के लिए...भारत के लिए...उन संगीनों ने तो आपस में प्यार करने लायक भी नहीं छोड़ा है इंसानों को...श्रीनगर की खौफजदा सी गलियों में घूमते हुए टकराए वे नौजवान जाने क्यों अपने से नहीं लगते...उन आंखों में या तो बगावत दिखी या नफरत...मादा आंखों कुछ पनीला सा नजर आया था...ठीक-ठीक मालूम नहीं...मजबूरी थी शायद...इधर या उधर न हो पाने की मजबूरी...वे लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं...लेकिन खुश नहीं हैं...गुस्सा हैं...कुछ भारत से, कुछ पाकिस्तान से और बाकी खुद से...

मैं जिक्र छेड़ने की कोशिश करता हूं, वे टाल देना चाहते हैं...एक गैर के सामने अपने घर की बातें करते शायद झिझक रहे हैं...मैं कुरेदता हूं, वे झिझकते हैं...मैं और कुरेदता हूं...वे फूट पड़ते हैं...क्यों रहें हम भारत के साथ...इसलिए कि हमारे बच्चों का बचपन भी फौजी बूटों की आहट से घबराते और गोलियों की आवाजों से सहमते हुए गुजरे...वे भी बड़े हों तो धमाकों की आवाज और कभी भी कुछ भी हो जाने का डर जिंदगी पर उनके यकीन की जड़ें हिला चुका हो...

लेकिन फौज तो आपके लिए ही है...आपकी सुरक्षा के लिए...मेरा भारतीय दिमाग तर्क करने से बाज नहीं आता...उनके पास जवाब है...हर बात का करारा जवाब...वो लड़की बोल उठती है...फौजें सरहदों पर अच्छी लगती हैं साहब, घरों की देहरियों पर नहीं...आपको कैसा लगेगा जब आप सुबह घर से बाहर निकलें तो आपका सामना दो अनजान लोगों से हो जो लगातार आपके घर के सामने तैनात रहते हैं...किसी और मजहब के...किसी और इलाके के...किसी और कल्चर को जीनेवाले...उनका मन करे तो अचानक रोककर आपके बदन को यूं खुरचने लगते हैं मानो बंदूके छिपाई हों, कपड़ों के भीतर नहीं, बदन के भीतर...कोई लड़की घर से बाहर निकले तो घूरती निगाहें उसका इस्तेकबाल करती हैं और दूर तक उसके पीछे लगी रहती हैं...अक्सर सुनते हैं फौजियों ने रेप किया...हम जानते हैं सब फौजी एक से नहीं होते...लेकिन डर तो एक होते हैं साहब...खबरों को शक में तब्दील होते देर नहीं लगती...किस पर यकीन करें, किस पर शक करें कुछ समझ में नहीं आता...

आप उन्हें गैर मजहबी, गैर इलाकाई, गैर तहजीब के मानते ही क्यों हैं...वे आपके अपने हैं, आपके अपने भारतीय...मैं ज्यादा भावुक तर्क करने की कोशिश में हूं...गलत कोशिश...वे धधक उठते हैं – आप मानते हैं?? आप मानते हैं सभी भारतीयों को सिर्फ भारतीय? हमने देखा है भारत के मुंबई में भारत के यूपी और भारत के बिहार वाले भारतीयों को मुंबई के भारतीयों के हाथों पिटते हुए, लुटते हुए...मरते हुए...वे तो गैर मजहब के भी नहीं थे...अलग तहजीब के भी नहीं थे...बस एक जगह से दूसरी जगह आए थे...क्यों नहीं माना गया उन्हें अपना...फिर हमसे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इन लोगों को अपना मान लें...वो भी तब, जब हमने देखा है, झेला है...इनकी मार को, इनकी घिन को...

मुझे शर्म आने लगती है, खुद पर...फिर संभलता हूं...एक सवाल है, मेरा रामबाण...कश्मीरी पंडित...उनके सामने उछाल देता हूं...वे क्या आपके अपने नहीं थे...उनका दर्द क्या कुछ नहीं...वे जो आज अपने घरों, अपनी जमीनों से कटे बैठे सिसक रहे हैं...क्या उन्होंने कम झेला है...वे मुस्कुरा देते हैं, मानो उन्हें इसी का इंतजार था...वो, जिसके बाल पुराने धोनी जैसे हैं, मुझे अपना मोबाइल पकड़ा देता है...उसकी स्क्रीन पर एक फोटो है...कहता है, ये क्वॉर्टर बनाए हैं सरकार ने उनके लिए जो चले गए हैं...सरकार चाहती है कि वे आ जाएं...क्वॉर्टर खाली पड़े हैं, वे नहीं आते...क्यों? सरकार उन्हें सुरक्षा देने को तैयार है, घर दे रही है...फिर भी वे नहीं आते...क्यों नहीं आते...आएं, जिएं वो सब जो हम जी रहे हैं...साझा करें हमारा दर्द...इस घाटी का दर्द...यह घाटी उनकी है तो इसका दर्द भी तो उनका है...आएं और लाल चौक पर धमाकों में लहू बहाएं, जैसे हम बहाते हैं...लेकिन नहीं, वे नहीं आएंगे...वे चले गए क्योंकि वे जा सकते थे...उनके पास जाने के लिए जगह थी...हम नहीं जा सकते, क्योंकि हमारे पास नहीं है वो जगह...हम कहां जाएं...दिल्ली? मुंबई? वहां भी हमें उन शक भरी निगाहों का सामना तो करना ही है...कश्मीरी पंडितों को कोई शक की निगाह से नहीं देखता...अपनाता है...हमें कोई नहीं अपनाता...शक की निगाह से देखता है...सबको लगता है कि फिरन के नीचे से अभी हम एके 47 निकाल लेंगे...

मेरे पास जवाब नहीं है...पर सवाल है...और वे जो उधर से आते हैं...वे आपके अपने हैं? नहीं साहब...बंदूक कहां किसी की अपनी होती है...हम जानते हैं कि वे भी अपने नहीं...ये घरों के बाहर खड़े रहते हैं तो उनको घरों के भीतर झेलना पड़ता है...दोनों ओर से मरना तो हमें ही है...इसीलिए तो कहते हैं कि हमें दोनों बख्श दो...हमें न ये चाहिए, न वे चाहिए...हम बस सुकून से रहना चाहते हैं...

60 साल में हम इन्हें अपना क्यों नहीं बना पाए...सेना भेजकर हमने क्या हासिल किया...नफरतें...इनका दिल जीतना हमारा फर्ज था...60 साल हो गए इस कोशिश में...और हम बुरी तरह नाकाम रहे हैं। आज भी वे लोग इस मुल्क को अपना नहीं मानते तो यह उनका नहीं हमारा कसूर है...आज भी हमें प्रशासन चलाने के लिए सेना की जरूरत पड़ती है...और जो लोग इस बात से खुश होते हैं कि चुनाव में भारी वोटिंग हुई, उनका जवाब भी मिला...’वह’ बोला – चुनाव में वोट हम भारत के लिए नहीं डालते, अपनी बिजली, सड़क और पानी के लिए डालते हैं, इनका कश्मीर के मसले से कोई लेना देना नहीं है...आपके मुल्क से इसका कोई लेना-देना नहीं.

आपका मुल्क...आपका मुल्क...चुभता रहता है...कौंधता रहता है...

Saturday 24 October, 2009

प्लीज, 'जेल' के सीन सेंसर न करो

एक फिल्म आनेवाली है...जेल...सुना है मधुर भंडारकर की इस फिल्म पर सेंसर ने बेरहमी से कैंची चलाई है। 7 सीन काट डाले हैं। इनमें कुछ न्यूड सीन हैं और कुछ जेल की वीभत्स जिंदगी दिखाते हैं...नहीं काटने चाहिए थे जेल वाले सीन...लोगों के सामने सच आना चाहिए। कितना जानते हैं लोग जेल की जिंदगी के बारे में...मुझे ‘उसने’ बताया था...वह बस में मेरी बगलवाली सीट पर बैठा था...मेरे हाथ में अखबार था और पढ़ वह रहा था...कोने में ‘जेल’ फिल्म की खबर थी –

जेल की जिंदगी का सच बहुत भयानक होता है – नील नितिन मुकेश

उसकी आंखें उसी पर गड़ी थीं...वे निगाहें जब डिस्टर्ब करने लगीं, तो मैंने अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया...तब ध्यान दिया...उसके चेहरे पर दो अजीब चीजें थीं...एक तो दाढ़ी...जैसे सदियों से वहीं जमी हो...और उसकी आंखें...छोटी-छोटी आंखें भी डरावनी हो सकती हैं, उसी दिन महसूस हुआ...उसने मेरी तरफ देखा तो मैं डर गया...वह भांप गया और मुस्कुरा दिया...बोला, सालभर से दाढ़ी नहीं बनाई है।

क्यों?

बस, जेल में सर्वाइव करने के लिए कुछ टोटके करने होते हैं।

जेल में??? मेरे मुंह से शब्द मुश्किल से निकले थे।

जी...वहीं से आ रहा हूं।

मेरे चेहरे पर कई भाव एकसाथ आ गए। उसने पकड़ लिया। बोला, मर्डर केस में अंदर था। आज ही जमानत पर छूटा हूं एक साल बाद। इस एक साल में असली चेहरे देखे हैं और इतनी करीब से देखे हैं कि हर तरह के भावों को पहचानने लगा हूं।

मैं थोड़ा कंफर्टेबल हो गया था। बोला, कैसी थी जेल की जिंदगी?

जैसी फिल्मों में दिखाते हैं वैसी तो बिल्कुल नहीं थी (उसने बोलना शुरू किया और बोलता ही गया, मानो कब से चुप बैठा हो) जेल की बैरकों में घड़ी नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि तब तो रहना मौत से बदतर हो जाएगा। लोग दिनभर बैठे वक्त का अंदाजा लगाते रहते हैं और वक्त कटता जाता है। लेकिन घड़ी सामने हो तो उसे देख-देखकर तो टाइम गुजरेगा ही नहीं। एक आदमी 10 साल से अंदर था। फिर उसकी रिहाई का वक्त आया। उसे शुक्रवार को रिहा होना था, लेकिन किसी वजह से टल गया। अब उसे सोमवार तक इंतजार करना था। 10 साल जेल में काटनेवाला आदमी दो दिन में ही पागल सा हो गया।

मैं और जानना चाहता था। वह बोल रहा था, जेल में कुछ खूंखार कैदियों का ही हुक्म चलता है। वहां वे बिल्कुल निरंकुश होते हैं, क्योंकि उन्हें किसी का डर नहीं होता। जो जेल पहुंच ही गया, उसे किसका डर। वे लोगों के साथ सब कुछ करते हैं...सब कुछ। उन्हीं की देखादेखी मैंने भी दाढ़ी रख ली थी, ताकि मासूम न लगूं। जो जितना मासूम, उसे उतना ज्यादा खतरा। मजे की बात है कि जेल में कानून तोड़ने की वजह से डालते हैं, लेकिन वहां कोई कानून नहीं चलता। वहां सिर्फ जंगल का कानून चलता है। जो ताकतवर है, वही जिएगा। पिटाई तो आम बात है, रेप भी हो जाए तो कोई चौंकता नहीं।

आपको जेल की सबसे खराब बात क्या लगी? पूछते ही मैं समझ गया कि बेवकूफीभरा सवाल है। लेकिन उसने जवाब दिया – यही कि वहां बंद ज्यादातर लोग अपराधी नहीं हैं। बोलते-बोलते वह खड़ा हो गया। उसे उतरना था। मैंने झिझकते हुए पूछा – क्या ...आपने...सच में...कत्ल किया था?

वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुराया और बिना कुछ बोले बस से उतर गया।

तब से मैं जेल की जिंदगी का सच जानना चाहता हूं। इसीलिए मैं चाहता हूं कि सेंसर बोर्ड ‘जेल’ फिल्म के सीन न काटे। आखिर कब तक कोई और फैसला करेगा कि हम क्या देखें और क्या नहीं।

वैसे, आप जानते हैं, जेल की कोई सचाई?

Wednesday 14 October, 2009

मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त!

3 बज रहे हैं
अंधेरा बस समेटने ही वाला है
रातभर की कमाई।
बांध लेगा अपनी पोटली में
घबराहट से टूटे
खिड़कियों पर टंगे सपने।
परदों से झांककर चुराई
मोहब्बत में भीगी चादरें।
उनीदें सीनों पर
औंधी सोई पड़ी किताबें।
रजाई के अंदर जारी
मोबाइल फोन्स की खुसर-फुसर।
दरवाजों के बाहर रखे
किराए पर रहने वाले लड़कों के
देर तक बजे ठहाके।
कॉल सेंटर कैब्स से उतरतीं
खूबसूरत थकानें।
ग्राउंड फ्लोर वाले गुप्ते के
चौकन्ने कुत्ते का खिजाता शोर।
चौकीदार के पतले कंबल में
दुबकी बैठी ठिठुरन।
इतना काफी नहीं है क्या?
मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त !!

Friday 2 October, 2009

तुमने राम को अपनाकर सही नहीं किया गांधी

हे गांधी बाबा

मैं तुम्हें बहुत मानता हूं। फिर भी, जब मायावती ने तुम्हें नाटकबाज़ कहा, तो मुझे ज्यादा दुख नहीं हुआ। हो सकता है नाटकबाज एक कड़वा शब्द हो, लेकिन यह कड़वाहट इसके अर्थ की गंभीरता को कम नहीं कर सकती।

ऐसा नहीं कि तुमने जो कुछ भी किया, वह एक नाटक था, कि तुम जो कहते थे उसे करना ही नहीं चाहते थे, लेकिन उसके नतीजे सिफर ही होने थे...सिफर ही हुए। क्या तुम्हारा एक भी मकसद पूरा हुआ? तुम जिस ‘राम-राज्य’ का सपना देखते-देखते विदा हुए, क्या एक पल के लिए भी यह राज्य उस ओर बढ़ पाया?

जवाब है नहीं...और अगर इसके लिए तुम्हें जिम्मेदार ठहराया जाए, तो गलत भी क्या है। भारत के इतिहास में एक तुम्हीं हुए, जिसकी एक आवाज पर पूरा देश कुछ भी कर गुजरने को तैयार था। लेकिन तुमने उन लोगों को राम के हाथों सौंप दिया। तुम जो भी करते, उसका श्रेय राम को दे देते...उस राम को, जिसके नाम पर हजारों साल से इस देश में हर 'गलत' काम को जायज ठहराया जाता रहा। राम से प्रेरणा पाते हिंदू धर्म के जिस आधार में खामियों की वजह से एक भेदभावपूर्ण, अन्यायी रस्म-ओ-रिवाजों और भौंडी परंपराओं से भरा समाज तैयार हुआ था, उसी राम की प्रेरणा और हिंदू धर्म के आधार पर तुम कैसे स्वस्थ और समतामूलक समाज तैयार कर सकते थे?

और यह बात तो राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों ने उसी वक्त तुम्हें समझा दी थी। मुझे नहीं पता, तुम जैसे महान दार्शनिक ने इसे कैसे समझा होगा, लेकिन तुमने जो किया, उसके नतीजे देखकर मुझे यह कहने का हक है कि तुमने जो आधार चुना, उसी में खामियां थीं। हजारों साल से पीड़ित ‘नीची जातियों’ को तुमने हरिजन कहकर ऊंचा उठाने की कोशिश की, लेकिन उसी हरि के नाम पर तो उन्हें ‘नीचा’ माना गया था। वे लोग जो खुद को गर्व से हिंदू कहते हुए और राम को मानते हुए भी इन ‘नीची जातियों’ को और नीचे धकेलते आ रहे थे, उन्हें तुमने न हिंदू धर्म को मानने से रोका, न राम को मानने से। उनके भेदभावपूर्ण विश्वास के आधार में ही कोई बदलाव नहीं हुआ, फिर सिर्फ नाम बदल देने से उस विश्वास के आधार पर तैयार मान्यताएं कैसे बदल सकती थीं?

हे गांधी बाबा, तुमने आत्मबल को नहीं, रामबल को ही मजबूत किया।

मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि तुम्हें समाज की नब्ज का साफ-साफ पता था। तुमने उस नब्ज को पकड़ा भी सही। इस आधार पर तुमने लोगों को एक रास्ते पर चलने के लिए तैयार भी कर लिया। लेकिन मंजिल का पता तुमने नहीं बदला। उस मंजिल की ओर तो वे पहले ही बढ़ रहे थे, बस उनके रास्ते अलग-अलग थे। तुम्हारे अंदर इतनी समझ और ताकत थी कि उन्हें एक रास्ते पर जमा कर सको, तो तुम्हें उन्हें सही मंजिल की ओर भी मोड़ देना चाहिए था। इतिहास में पहली और शायद आखिरी बार ऐसा हुआ था कि हजारों साल से अलग-अलग रास्तों पर चलता पूरा देश एक जगह आ खड़ा हुआ था, एक साथ चलने को तैयार था और उनका नेतृत्व तुम्हारे हाथ में था। तुम चाहते तो उन्हें कहीं भी ले जा सकते थे। तुम चाहते तो उन्हें इन्सानियत के आधार पर आगे बढ़ने को कहते, राम के आधार पर नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुमने तो उन्हें लड़ने से भी रोका तो राम की दुहाई देकर। उसी राम की दुहाई, जिसके नाम पर वे आमने-सामने आ खड़े हुए थे। कुछ इसलिए, क्योंकि वे राम को मानते थे और कुछ इसलिए कि वे राम को नहीं मानते थे। तुमने क्यों उन्हें नहीं समझाया कि राम से भी बड़ा है इन्सान? तुमने क्यों उन्हें नहीं बताया कि इन्सानियत सबका साझा आधार है और यही एक मात्र आधार हैं जहां कोई किसी से जुदा नहीं है?

तुम तो मरते-मरते भी उन्हें राम के हवाले कर गए। आखिरी वक्त में क्यों तुमने नहीं कहा कि हम सब इन्सान बनकर इस दुनिया, इस देश को संभालें।

देखो, तुम्हारे राम ने क्या कर डाला है। अब सब बंट चुके हैं। इस देश में हिंदू रहते हैं, मुसलमान बसते हैं, दलित हैं, व्यापारी हैं, कर्मचारी हैं, सरकारी हैं, प्राइवेट हैं...नहीं हैं तो बस इन्सान। तुम्हारे मुंह से निकला राम सबने लपक लिया है। सबका अपना-अपना राम है। सब अपने-अपने राम के लिए लड़ते हैं। कोई उस ‘राम’ को मंदिर में बिठाना चाहता है, कोई उस ‘राम’ को पावर बनाना चाहता है। अब तुम खुद भी तो ‘राम’ ही बन गए हो।

Thursday 1 October, 2009

कल 'मुल्लों' को किसी ने देशद्रोही नहीं कहा

चैंपियंस ट्रोफी में कल गजब का दिन था...सब ‘मुल्ले’ पाकिस्तान की जीत के लिए दुआ कर रहे थे...और सब ‘ना-मुल्ले’ उस दुआ में शामिल थे...वही ‘ना-मुल्ले’, जो ‘मुल्लों’ को पाक की जीत के लिए दुआ करने का अपराधी घोषित करते हैं...और सजा भी तय करते हैं...देशद्रोह की...

कहते हैं पाकिस्तान को दी गई दुआ भी तो देश के लिए ही थी...कौन जाने वे ‘मुल्ले’ पाकिस्तान के लिए उसी तरह दुआ नहीं कर रहे थे, जैसे उन पर आरोप लगते हैं...लेकिन कल कोई सवाल नहीं था...कल उनका 'देशद्रोह' सबको जायज लग रहा था...कुछ 'नामुल्ले' कह रहे थे, अभी हो जाने दो बाद में देख लेंगे...उनकी बेबसी मजेदार थी...

दिलचस्प नजारा था...मजा आ गया...वक्त सबको आईना दिखा गया...

Friday 25 September, 2009

काजल की करारी टिप्पणी, क्षमा का समर्थन और मेरा जवाब

मैंने लिखा था – पुलिस अफसरों का महान सुझाव, हमें खराब हथियार दो। इस बहस को काजलजी और क्षमाजी को बहुत सलीके से आगे बढ़ाया है। उन्होंने काफी तर्कपूर्ण टिप्पणियां की हैं। लेकिन मैं उनका जवाब देना चाहूंगा...

काजल जी कहते हैं..

जब पुलिस को अत्याधुनिक साजो-सामान व सुविधाओं से लैस नही किया जाएगा तो पुलिस ऐसा ही सोचेगी।

कभी आपने सोचा है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पोस्ट किए गए कॉन्स्टेबल की स्थिति क्या है, उसके पास क्या हथियार हैं, क्या व कब खाना मिलता है, उसके पास रहने की क्या व्यवस्था है, उसके पास यातायात की क्या सुविधा है, उसे किस मौसम के हिसाब से किस तरह की वर्दी मिलती है, उसके परिवार की क्या स्थिति है, उसके उच्चाधिकारी व इलाके के नेता उससे कैसा व्यवहार करते हैं, उसे कितना वेतन व कब मिलता है, उसके पास क्या संचार सुविधाएं हैं, उसे बिजली-पानी की भी सुविधा है? उसे शौच की मूलभूत सुविधाएं भी हैं क्या? कभी नेता लोगों के बारे में सोचा है कि क्या वे इस लायक हैं जो सभी कुछ हथियाए बैठे हैं?

बहुत आसान है हास्यास्पद बताना।

जिस पुलिस के आत्मविश्वास का स्तर इतना नीचा हो, जिसकी बात कोई नेता सुनने को राजी तक न हो,जिस पुलिस पर केवल निकम्मा कहा जाना ही बदा हो...उससे कोई अन्य आशा की भी नहीं जा सकती।

पर ताली एक हाथ से बजाने के बजाय अच्छा होगा कि पुलिस को इस सोच तक डिगाने के जिम्मेदार नेता लोगों को भी नंगा किया।


क्षमा जी कहती हैं...

Anti Naxalite Cell से संपर्क में हूं...इसके अनेक पहलु हैं ...police force कम है...जो बारूद /विस्फोटक बनाते हैं, उनपर पुलिस दल कैसे रोक लगा सकता है? यह काम गृह मंत्रालय के तहत आता है...और मंत्रालय में IAS के अधिकारी मंत्रियों के सचिव होते हैं...पुलिस इनके तहत रहती है...police इससे आगे क्या सुझाव देगी...ये बताएं ? गर reforms हों तो police कुछ अन्य तरीके अपना सकती है...reforms हो नहीं रहे...supreme court के order के बावजूद ( 1981 में ऑर्डर निकला था )...तबसे हर सरकार ने उसकी अवमानना की है ..अब आगे उपाय बताएं!

प्रकाश सिह, जो BSF (बॉर्डर सिक्यूरिटी फोर्स) के निवृत्त डीजीपी हैं, वो PiL दाखिल कर एक लम्बी कानूनी जिरह लड़ रहे हैं...सच तो यह है कि लोकतंत्र में जनता अपने अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करती।

मेरा कहना है...

आपकी बात बिल्कुल सही है कि पुलिस को सुविधाएं नहीं मिलतीं। लेकिन क्या इस वजह से उसकी आलोचना बंद हो जानी चाहिए? क्या हम पुलिस की गलतियों को जाहिर करना सिर्फ इसलिए बंद कर दें कि वे ‘बेचारे’ तो ‘लाचार और मजबूर’ हैं? यह कुछ वैसा ही होगा कि पुलिसवालों को रिश्वत लेने का हक है क्योंकि उनकी सैलरी कम है। हम उनकी सैलरी बढ़ाने की बात कर सकते हैं, लेकिन किसी भी हालत में उनके रिश्वत लेने को तो जायज नहीं ठहराया जा सकता!

मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि पूरे सिस्टम में गड़बड़ियां हैं, लेकिन पुलिस उस सिस्टम का बेहद ताकतवर हिस्सा है। उसे असीम हक मिले हुए हैं और उसे सिर्फ इसलिए नहीं बख्शा जा सकता कि पूरा सिस्टम खराब है। ठीक है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र में तैनात पुलिसवालों को सुविधाएं बहुत कम हैं, लेकिन क्या सिर्फ इसलिए उन्हें किसी भी मासूम को पकड़कर गोली मार देने और उसे नक्सली घोषित कर देने का अधिकार दे दिया जाना चाहिए? या सिर्फ इसलिए उनके मूर्खतापूर्ण सुझाव को सही ठहराया जाए?

पुलिस का रूखा और बेहूदा व्यवहार कितने अपराधी तैयार करता है, यह किससे छिपा है। कितने ही लोगों की शिकायतें सिर्फ इसलिए दर्ज नहीं की जातीं, क्योंकि थानों का रिकॉर्ड खराब हो जाएगा! रेप की शिकार गरीब औरतें शिकायत दर्ज करानेभर को ही दर-दर भटकती रहें और हम पुलिस की लाचारी का रोना रोते रहें? पैसे लेकर किसी को भी अपराधी बना देने का ‘गुणी शौर्य’, मासूमों को कत्ल करके उन्हें अपराधी घोषित कर देने की ‘बहादुरी’, किसी बड़े आदमी को गिरफ्तार करने से पहले फोन करके नेताओं से पूछ लेना कि कहीं उनका आदमी न हो...क्या जस्टिफिकेशन हो सकती है इसकी?

पुलिस के सिर पर निकम्मा कहा जाना बदा नहीं है, उसने खुद को निकम्मा साबित किया है। आप कहेंगे कि उन्हें तो नेता और आईएएस अफसर कुछ करने नहीं देते। नेता जिस तरह पुलिस का इस्तेमाल करते हैं, पुलिसवाले भी उनका कम इस्तेमाल नहीं करते। ‘बेहतर’ पोस्टिंग के लालच में जब यही लोग उनके आगे-पीछे नाक रगड़ते घूमेंगे तो वे क्यों नहीं इनका फायदा उठाएंगे! मैं फिर कहता हूं कि इसका मतलब नेताओं या अफसरों को जायज ठहराना नहीं है...कतई नहीं है...लेकिन सिर्फ इस आधार पर आप पुलिसवालों को माफी तो नहीं दे सकते।

Friday 18 September, 2009

पुलिस अफसरों का महान सुझावः हमें खराब हथियार दो

दिल्ली में देश के सबसे बड़े पुलिस अफसरों का सम्मेलन हुआ। वे लोग देश की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए फिक्रमंद हैं। इसी की बेहतरी के लिए बातचीत हो रही है। इसी बातचीत में एक सुझाव आया है। देश के सबसे बड़े (और बहादुर?) पुलिस अफसरों की तरफ से आया यह महान सुझाव आप भी पढ़िए।

मैं www.navbharattimes.com की एक खबर को यहां कोट कर रहा हूं –

“चर्चा के दौरान नक्सलियों द्वारा भारतीय कंपनियों से लूटे गए विस्फोटकों का मुद्दा भी उठा। पुलिस अधिकारी चाहते हैं विस्फोटक बनाने वाली कंपनियां जो जिलेटिन छड़ें बना रही हैं उनको इस तरह बनाए कि वह एक निश्चित अवधि के बाद बेकार हो जाएं। निर्धारित अवधि के बाद इनका उपयोग ही न किया जा सके। नक्सली अभी जो विस्फोटक लूट कर रख लेते हैं उनका लंबे समय तक इस्तेमाल करते रहते हैं। इन कंपनियों द्वारा बनाए जाने वाले डेटोनेटर पर भी सवाल उठे।

अफसरों का कहना था कि डेटोनेटर ऐसे बनाए जाएं जिन्हें फटने में कुछ ज्यादा समय लगे। ऐसी स्थिति में सुरक्षा बलों के जवान और वाहनों का बड़ा बचाव होगा। क्योंकि अगर डेटोनेटर देर से फटेगा तो वाहन को बारूदी सुरंग या बम के ऊपर से निकलने का समय मिल जाएगा। उल्लेखनीय है कि नक्सली सुरक्षा बलों के खिलाफ सबसे ज्यादा बारूदी सुरंगों का ही इस्तेमाल करते है। सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं से होता है।”


पूरी खबर यहां पढ़ें

अगर यह खबर सही है (दोहराता हूं, अगर खबर सही है, क्योंकि यकीन नहीं हो रहा कि ऐसा सुझाव आया होगा पुलिस अफसरों की तरफ से) और मैं इस बात को सही समझ रहा हूं तो हमारे बहादुर पुलिस अफसर चाहते हैं कि हथियार खराब बनाए जाएं ताकि जब नक्सली उन्हें लूट कर ले जाएं, तो वे उनके काम न आ सकें।

इससे तो बड़े दिलचस्प निष्कर्ष निकलते हैं। पुलिस अफसर मान चुके हैं कि हथियार लूटे ही जाएंगे। वे लूट तो नहीं रोक सकते, इसलिए हथियार ही खराब कर दो। नक्सली सिर्फ लूटे गए हथियारों पर ही निर्भर हैं। उनके पास और कोई जरिया ही नहीं है।

युद्ध का एक तरीका होता है दुश्मनों की सप्लाई काट देना। लेकिन सप्लाई काटने का यह तरीका तो नायाब है।

निश्चिंत रहिए, आपकी सुरक्षा बहुत काबिल हाथों में है।

Friday 11 September, 2009

डर जाओ, अब वह मरने के लिए तैयार है

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सुना तुमने,
इस बार उसने
मुंह चिढ़ाती भूख को
धमकाकर भगा दिया है।
हालात के पंछी
उसके घर के सामने वाले बरगद पर नहीं हैं
आज सुबह से।
कल रात से मजबूरियां भी
रोती सुनाई नहीं दीं।
बताते हैं,
कई रोज हुए
सूख चुका है
छलकती भावनाओं का कुआं।
और अभी-अभी बहाकर आ रहा है
आंसुओं की लाश,
बिना संस्कार किए।

डर जाओ,
अब वह मरने के लिए तैयार है।।

Friday 4 September, 2009

जसवंत की किताब से रोक हटी, लेकिन विरोध जारी रहे

जसवंत सिंह किताब से गुजरात में पाबंदी हटा दी गई है। कोर्ट की दखलअंदाजी से ही यह संभव हुआ। नहीं तो फासीवादियों से तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी। फिर भी, बधाई। उन सभी को, जो लोकशाही में भरोसा रखते हैं। आजादी में भरोसा रखते हैं। लेकिन फासीवाद का विरोध जारी रहे। जिन्ना के नाम पर हो रही खोखली राजनीति का विरोध जारी रहे। किताब के नाम पर हो रहे प्रोपेगैंडा का विरोध जारी रहे।

Friday 21 August, 2009

बीजेपी लोकशाही पर चले या भौंकशाही पर, बुक पर बैन नहीं चलेगा

बीजेपी जसवंत सिंह को निकाले या गले में डाले, मेरी बला से। उनकी पार्टी में लोकशाही है या भौंकशाही, यह भी वे आपस में ही समझें। पार्टी आरएसएस की तान पर नाचती है या आरएसएस पार्टी को जांचती है, मुझे कोई मतलब नहीं। मैं किताब पर बैन सहन नहीं कर सकता।

बीजेपी के भीतर किताब पर जो भी हल्ला मचे, आप आम आदमी को किताब पढ़ने से कैसे रोक सकते हैं? पार्टी को किताब पसंद नहीं आई या उसका लिखनेवाला, यह उनकी अपनी समस्या है। वे तय करने वाले कौन होते हैं कि मैं क्या पढ़ूंगा और क्या नहीं?

जसवंत सिंह ने जो लिखा है, उस पर बीजेपी को आपत्ति है, एक राज्य की जनता को नहीं। और अगर आपत्ति है भी, तो जनता खुद तय करेगी कि किताब पढ़नी है या कूड़े में फेंकनी है। कोई मुख्यमंत्री सिर्फ इसलिए ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि किताब में जो लिखा गया है, वह उसकी पार्टी की विचारधारा के खिलाफ है।

जसवंत सिंह को निकालना तानाशाही हो या न हो, किताब पर बैन लगाना तानाशाही है। राज्य की जनता आपकी पार्टी की मेंबर नहीं है, जिसके लिए आप विप जारी करेंगे कि क्या लिखे और क्या पढ़े।

नरेंद्र मोदी के इस कदम का सख्त विरोध होना चाहिए। मैं इसका विरोध करता हूं।

Tuesday 18 August, 2009

सिस्टमः भौंकना कुत्तों का फर्ज रहे

सूनी अंधेरी गली में
रात को भौंकते कुत्ते
क्या आपकी नींद खराब करते हैं?
नींद उचट जाने के बावजूद
आपको लगता होगा
सूनी अंधेरी गली में
रात को भौंकते कुत्ते
प्रतीक हैं उस अनजान साये का
जो उन्हें अंधेरे में नजर आ रहा है।
तब नींद की जगह
आंखों में
उमड़ पड़ता होगा धन्यवाद
कोई आपको बचा रहा है।
जरूरी नहीं कि
अनजाना साया,
आया ही हो
हो सकता है
कुत्तों को भौंकने में
मजा आने लगा हो।
आप ये क्यों नहीं सोचते
कि
सूनी अंधेरी गली में
रात को भौंकते कुत्ते
प्रतीक हैं
आपके जग जाने का।
तो बैठें
उठें
देखें
साया है भी या नहीं।
क्योंकि
भौंकना उनका फर्ज़ ही रहे
शौक न हो जाए।
ज़रूरी आपकी नींद रहे
उनकी भौंक न हो जाए।

Saturday 8 August, 2009

एक महान लेखक की बे-मौत...


कोर्ट मार्शल का नाम सुना है आपने? मशहूर नाटक कोर्ट मार्शल? क्या आप जानते हैं कि इस महान और मशहूर नाटक को लिखने वाला करीब तीन साल से लापता है? 2 जून 2006 की सुबह दीपक मॉर्निन्ग वॉक के लिए निकले। फिर नहीं लौटे। आज तक।

अभी अंबाला में उनके कुछ दोस्तों से मिलना हुआ। वे दीपक की बात करते कतराते हैं। दुखता है। दीपक की पत्नी गीता दीपक की यादों के साथ-साथ कैंसर से भी जूझ रही हैं। अब वे उन लोगों से कम ही मिलती हैं, जो दीपक की बात करने आते हैं। कुछ लोग उनके नाटक करते हैं, वे अब इजाजत नहीं लेते। स्टेज पर नाटक होते हैं...दीपक नहीं।

उनकी याद में सभाएं नहीं होतीं... उन्हें श्रद्धांजलि कोई दे तो कैसे...

दीपक हैं या नहीं, कोई नहीं जानता। इंतजार...कुछ करते हैं, कुछ नहीं। दीपक का जिक्र अब सिर्फ एक लाइन में होता है। लोग एक-दूसरे से पूछते हैं - क्या लगता है, कभी लौटेगा दीपक...जवाब नहीं मिलता...दे भी कौन सकता है। जिक्र रुक जाता है। बात आगे नहीं बढ़ती।

अजीब है ना...एक महान लेखक के लिए इससे बड़ी ट्रैजिडी और क्या होगी कि उसका जिक्र ही बंद हो जाए। फिर भी, दीपक के शब्द तो जलते हैं... जलते रहेंगे।

Monday 27 July, 2009

कत्ल से पहले बहनें...बहनों के कत्ल के बाद

गांव से लौटा हूं...हरियाणा के गांव से...उसी हरियाणा के गांव से जहां लड़कियों का कत्ल जारी है...इज़्ज़त की बलिवेदी पर...

कत्ल से पहले
बहनें सुबह हैं
सुबह की चौखट पर फुदकती चिड़िया हैं
चिड़िया के परों पर ओस का कतरा हैं
कतरे के भीतर गीली रोशनी हैं
रोशनी का फैलता पागलपन हैं
पागलपन की तन्हाई हैं
तन्हाई में चुपके से जन्मती मोहब्बत हैं
मोहब्बत की दुनियावी घबराहट हैं
घबराहट का पहला कदम हैं
पहले कदम की मुखालफत हैं
मुखालफत का कत्ल हैं
कत्ल की रात हैं...

कत्ल के बाद
बहनें... वक्त हैं
वक्त के बोलते रिवाज़ हैं
रिवाज़ों की बढ़ती जरूरत हैं
जरूरतों की भटकती अहमियत हैं
अहमियत का सुर्ख अहम हैं
अहम की पिघलती इज़्ज़त हैं
इज़्ज़त की वेदी हैं
वेदी की ठंडी अग्नि हैं
अग्नि की पवित्रता हैं
पवित्रता की बासी फूल हैं
फूलों की सिसकती माला हैं
मालाओं के पीछे की चुप तस्वीर हैं


बहनों के कत्ल से पहले
भाई...मर्द हैं
बहनों के कत्ल के बाद
भाई... मर्द हैं।।

Friday 17 July, 2009

सच का सामनाः कहीं यह गेम शो हमें डरा न दे

क्या कभी आपने पति का कत्ल करने की सोची...क्या आपकी कोई नाजायज़ औलाद है...क्या आपको लगता है कि आपकी बीवी आपसे ज्यादा आपके पैसे से प्यार करती है...ये सवाल हैं स्टार प्लस के गेम शो ‘सच का सामना’ से...निजी हैं...बहुत मुश्किल हैं...डरावने हैं...कौन होगा जो इस तरह के सवालों के सामने खड़ा भी होना चाहेगा...जवाब देना तो बाद की बात है...क्या आप चाहेंगे...एक करोड़ रुपये के लिए भी नहीं?

यही बड़ा सवाल है...और आजकल सबके मन में है...क्या पैसे के लिए टीवी पर दुनियाभर के सामने अपने निजी सच जाहिर करना सही है...क्या पैसे की कीमत रिश्तों से ज्यादा है...क्या संवेदनाओं की कीमत लगाई जा सकती है...क्या अपनों का दिल तोड़कर अमीर बनना सही है...

इन सवालों के जवाब सबके अपने होंगे...इन सवालों के जवाब हां या ना में नहीं हो सकते...किसी सवाल का जवाब हां या ना में नहीं हो सकता...और सच बोलना हो तो कतई नहीं हो सकता...क्योंकि कोई ऐसा नहीं जिसका अपना सच न हो...किसी की पुरानी किताबें...किसी के पर्स में कुछ टुकड़े कागज़...कहीं किसी पुरानी फाइल में कुछ रद्दी अक्षर...स्टोर रूम में रखी एक गत्ते की पेटी...अनजान नाम से बना एक ईमेल आईडी...अजीब नाम से फोन में कोई नंबर...डायरी के कुछ ऐसे पन्ने जो चाहकर भी फाड़े नहीं जा सके...ड्राइव करते वक्त आया वह खयाल...

लेकिन सच अकेला नहीं होता...हर सच के साथ एक कहानी होती है...छिपे हुए सच की कहानी तो दर्दनाक होती है...हर छिपा हुआ सच वजहों और सफाइयों के ढेर के नीचे दुबका रहता है...हम सब उस ढेर को ढोते हैं ताकि सच छिपा रहे...

लेकिन स्टार प्लस का यह गेम शो हम सबको सोचने पर मजबूर तो करेगा...वहां जब सवाल पूछे जाएंगे...तो हमारे भीतर दुबका सच वजहों और सफाइयों के उस ढेर में कुलबुलाएगा जरूर...इधर राजीव खंडेलवाल सवाल करेगा और उधर हमारा ध्यान परछत्ती में रखी उस पेटी की ओर जाएगा जरूर...

मिस्टर राजीव खंडेलवाल, हम तो खुद से भी सच नहीं बोलेते...

Tuesday 14 July, 2009

गाय का गोश्त और हड्डियां मेरी चौखट पर फैला दीं

“नए घर में तीसरी या चौथी सुबह देखा कि चौखट के पास गाय का गोश्त और कुछ हड्डियां फैलाई गईं थीं। यह सिर्फ शरारत नहीं थी। मोहल्ले के कुछ उत्साही लड़कों द्वारा विरोध और गुस्से का प्रदर्शन था कि मैं मकान छोड़कर भाग जाऊं।”

गुलशेर खां शानी यानी एक ‘मुस्लिम हिंदी लेखक’। उनकी प्रतिनिधि कहानियों की भूमिका में लोठर लुत्से ने उनकी जिंदगी की एक घटना का ज़िक्र किया है। घटना बहुत महत्वपूर्ण है, समझने के लिहाज से भी और महसूस करने के लिए लिहाज से भी। दरअसल, यह घटना आईना भी है और तमाचा भी...


शानी अपने परिवार के साथ ग्वालियर गए। तब उनके साथी उनके वास्तविक नाम से परिचित नहीं थे। शानी ने कहा कि वह गैर मुस्लिम पड़ोस में रहने को तरजीह देंगे। साथी ने वजह पूछी तो शानी ने बताया कि मैं घोर धार्मिक वातावरण और कट्टरपंथी माहौल से दूर रहना चाहता हूं। साथी कुछ देर तक शानी को घूरते रहे और फिर उनके कान के पास आकर उन्हें पूरी तरह कॉन्फिडेंस में लेते हुए धीरे-से बोले – सुनिए, डरने की कोई बात नहीं। यहां साले मियां लोगों को इतना मारा है, इतना मारा है कि अब तो उनकी आंख उठाने की भी हिम्मत नहीं रही।

आखिरकार शानी ने एक खालिस मुस्लिम पड़ोस में मकान खोज लिया। नए घर में तीसरी या चौथी सुबह उन्होंने देखा कि उनकी चौखट के पास गाय का गोश्त और कुछ हड्डियां फैलाई गईं थीं।

‘यह सिर्फ शरारत नहीं थी। मोहल्ले के कुछ उत्साही लड़कों द्वारा विरोध और गुस्से का प्रदर्शन था कि मैं मकान छोड़कर भाग जाऊं।’ शानी को गलती से साहनी नाम का पंजाबी हिंदू समझ लिया गया था।

(शानी की प्रतिनिधि कहानियां से साभार)

Tuesday 30 June, 2009

सोमा की टिप्पणी पढ़ने लायक है

अपनी पिछली पोस्ट हिंदू बच्चे का मुस्लिम नाम...हाय राम में मैंने एक दुआ मांगी थी। आप सभी साथियों ने उस दुआ के लिए हाथ उठाए थे...लेकिन सोमा वैद्य उससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका मानना थोड़ा अलग है। सहमति-असहमति से परे, उनकी टिप्पणी पढ़ने लायक है...


बिल्कुल सही कहा तुमने ….नाम का मतलब उस शब्द का मतलब कम और उस व्यक्ति के धर्म से ज्यादा लगाया जाता है ...जो गलत नहीं है....लेकिन मेरी समझ से यह भी सही नहीं कि किसी धर्म विशेष के व्यक्ति का नाम किसी और धर्म के अनुसार हो ...वजह है... इसके पीछे कारण कट्टर होना नहीं। नाम कहीं न कहीं उन भावनाओं, संस्कृतियों से जुड़ा हुआ है जिन्हें आप मानते हैं ....( शौकिया, फैशनेबल लोगों को छोड़ दें तो ) अगर किसी के नाम से यह पता चलता है कि वह किस संस्कृति में पला बढ़ा है.. किसमें उसकी आस्था है.. तो उसमें कोई हर्ज नहीं। तकलीफ इस बात से है कि हर धर्म को लेकर लोग पूर्वाग्रहों ( शायद यह शब्द ठीक है ) से ग्रसित हैं ..और बस उसके मुताबिक बन जाती है सोच .... इस्माइल नाम सुनते ही दिमाग में हजारों ख्याल दौड़ जाएंगे...तो स्टीवन के नाम से कुछ और ही तस्वीर उभर कर आएगी ...यह जानने की कोशिश किए बिना कि गलत तो सुरेश या दलजीत भी हो सकते हैं...हिंदू अगर अपने बेटे का नाम अयान रखे तो यकीनन काबिल-ए-तारीफ है...लेकिन शायद इससे ज्यादा जरूरत अपनी सोच को बढ़ाने और अपने धर्म को मानते हुए भी औरों के धर्म को आदर देने की है ।


(सोमा वैद्य स्टार न्यूज, मुंबई में असोसिएट प्रड्यूसर हैं।)

Thursday 25 June, 2009

हिंदू बच्चे का मुस्लिम नाम...हाय राम !

मुझे नहीं पता था कि यह ‘अपराध’ है। मैंने तो बस एक नाम सुझाया था...वे एक मीनिंगफुल नाम चाहते थे...आजकल यही फैशन है ना...नाम का अच्छा सा मीनिंग होना चाहिए...नाम बोलते हुए चाहे जबान टेढ़ी हो जाए...और मीनिंग भी ऐसा निकलेगा कि उसका भी मीनिंग पूछना पड़े...लेकिन उन्होंने जैसे ही कहा हमारे लिए तो यह ईश्वर का तोहफा है...मेरे मुंह से एक ही शब्द निकला...अयान...अयान यानी खुदा का तोहफा...गिफ्ट ऑफ गॉड...

बस यही मुझसे गलती हो गई...नाम बताते वक्त मैंने यह नहीं सोचा कि अयान उर्दू का लफ़्ज़ है और उस बच्चे के मां-बाप उर्दू को मुसलमानों की जबान समझते हैं। सुनते ही उन्होंने कहा...यह तो मुस्लिम नाम है...मुस्लिम नाम? क्या उर्दू का हर लफ़्ज़ मुस्लिम है?

फिल्म 'अ वेन्जडे' में एक बहुत अच्छा डायलॉग है – नाम रहने दीजिए, क्योंकि नाम को लोग धर्म के साथ जोड़ लेते हैं...अगर हिंदू और मुस्लिम नाम का फर्क मिट जाए तो कैसा हो...कोई अपना नाम बताए और पता ही न चले कि वह हिंदू है या मुसलमान...प्रभात अपने बेटे का नाम नज़ीर रखे और उस्मान के बेटी का नाम हो अपूर्वा...मैं तो यह भी चाहता हूं जॉन अपनी बेटी को ‘बाइ गुरमीत...’ कहकर स्कूल भेजें और कुलविंदर सिंह जी अपने बेटे को पंजाबी में प्यार से ‘ओ पीटरया...’ कह कर पुकारें...लेकिन कुछ लोग संस्कृति की दुहाई देते हैं...उनका तर्क है कि नाम अपनी संस्कृति और सभ्यता से प्रेरित होने चाहिए और उसकी पहचान होने चाहिए...

फिर भी गंगा-जमुनी तहजीब तो हम सबकी साझी है...आज जो संस्कृति हम सबकी है, उसमें कितनी ही चीजें, परंपराएं और चिह्न साझे हो चुके हैं...दुनियाभर की शादियों में लोग पंजाबी पॉप सॉन्ग्स पर ही नाचते हैं...फिर कब तक उन सैकड़ों साल पुरानी बातों की दुहाई देते रहेंगे हम...

जींस कल्चर की सबसे अच्छी बात यही है कि नौजवान अब धार्मिक चिह्न नहीं पहनते...किसी को राम और ओम लिखे कुर्ते पहने देख आप उसका धर्म नहीं बता सकते...धर्मों की ऐसी बहुत सारी खाइयों को पाटने के लिए बहुत सी बातों को बदलना है...क्यों ना शुरुआत नाम से ही करें...

(उस बच्चे का नाम अयान ही रखा गया है...उम्मीद है जब वह बड़ा होगा, तब तक भेद मिट चुका होगा...लोग उसे इंसान के तौर पर ही पहचानेंगे हिंदू या मुसलमान के तौर पर नहीं...आमीन !)

Tuesday 16 June, 2009

एक चुराई हुई कविता...

यह कविता मैंने चुराई है
उस फटे-पुराने बूढ़े से
जो मदरडेयरी के पुल पर सड़क किनारे
छतरी ताने बैठा रहता है,
एक मैले से चादरनुमा कपड़े पर
पान-मसाले के पैकिट बिछाए।
चिलचिलाती धूप और तेज़ बारिश में
उसकी छतरी के छेदों से
अक्सर झरती है...कविता।

यह कविता मैंने चुराई है
उस उधड़े हुए मोची से
जो बस स्टॉप के बराबर में बैठा
जीता रहता है
गुजरते जूतों के तलवों के नीचे।
2750 रुपये के जूते में
कील ठुकाई के बाद
5 रुपये देने पर झीकते ग्राहक
अक्सर उगलते हैं...कविता।

यह कविता मैंने चुराई है
उस छोटी सी सेल्सगर्ल से
जो बड़े से शोरूम में
रोज बेचती है हजारों का सामान।
2 मिनट लेट होने पर छोटी सी सैलरी में
बड़ी सी कटौती का डर
जब उसे मजबूर करता है
लफंगों से भरी बस के पीछे भागने के लिए
तो अक्सर उसके कमीज की सिलाई से
फट जाती है...कविता।

यकीन मानिए
अखबार की सुर्खियों से
भरमाए हुए दिलों में
अब कविताएं नहीं उगतीं।

Thursday 11 June, 2009

क्या कोई अपने बच्चे का नाम रावण रखेगा?

अजीब सवाल है ना ! रावण, हिटलर, कुंभकर्ण, विभीषण, शकुनि, दुर्योधन, कंस, मेघनाद...मैं कभी इन नामों वाले किसी शख्स से कभी नहीं मिला। पापा की पीढ़ी में, अपनी पीढ़ी में और मेरे बाद आई पीढ़ी में भी मैंने अब तक किसी ऐसे शख्स को नहीं देखा, जिसका नाम रावण हो। सुना है कि दक्षिण भारत में किसी जगह रावण की पूजा होती है। हो सकता है, वहां किसी का नाम रावण हो !

अपने कुछ यूरोपीय मित्रों से पूछा तो हिटलर नाम पर उन्होंने ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया दी, जैसी इन कुछ हिंदुस्तानी नामों को लेकर हमारी होती है। क्यों? सिर्फ इसलिए कि ये नाम ऐतिहासिक या पौराणिक खलनायकों के हैं? क्या यह यह हमारी सनक नहीं है कि हम अपने बच्चों के नाम तक ऐसे नहीं रखना चाहते?

अच्छा एक और सवाल और...हर्षद मेहता, मनु शर्मा, प्रभाकरन, तेलगी....क्या ये खलनायक नहीं हैं? हमारे वक्त के खलनायक तो शायद यही हैं। ऐतिहासिक खलनायकों का तो हमने बस नाम ही सुना है, हमने इन लोगों के तो अपराध और उनकी वजहों से बहाए गए आंसू, दोनों देखे हैं...क्या इन नामों को लेकर भी हमारे अंदर वही विरोध है, जो रावण या हिटलर या मेघनाद जैसे नामों को लेकर है?

जब नाम रखे जाते हैं, तो उम्मीद की जाती है कि उस नाम के गुण बच्चे के अंदर आएंगे। क्या ऐसा होता है? फीसद तो नहीं पता, लेकिन अपने आसपास जितने भी लोगों को देखता हूं, एक-आध ही है, जिसके अंदर वे गुण हैं जो उनके नाम के मुताबिक होने चाहिए। आप नजर दौड़ाइए अपने चारों ओर, देखिए कितने लोग हैं जो यथा नाम तथा गुण हैं। और फिर रावण की मां ने कब सोचा होगा कि उसका बेटा इतिहास का इतना बड़ा खलनायक निकलेगा, ठीक उसी तरह जैसे प्रभाकरन की मां ने नहीं सोचा होगा!

फिर भी, कौन अपने बच्चे का नाम रावण रखना चाहेगा !

Wednesday 3 June, 2009

आखिरी आदमी का गीतासार

देखा तुमने!
हवा कैसे हमें बिना छुए बढ़ गई !
पसीने में भीगे बदन की गंध
अब उसे पसंद नहीं।
सड़क भी दौड़ पड़ी
हमारे नंगे पांवों तले से निकलकर
रबर के टायरों और
नर्म ब्रैंडेड जूतों की चाह में।
हमारे मुफ्त के आराम के डर से
पेड़ों ने छिपा ली है छांव,
महंगे रेजॉर्ट्स में
रोमैंटिक जोड़ों को बेचने के लिए।
फसल भी अब उगने के लिए चाहती है
बड़ी-बड़ी मशीनों और खाद की,
खरीदी गईं इल्तिजाएं।
ठीक है कि जाता रहा
इन सबके साथ मिलकर
जिंदगी पर कुढ़ने का मज़ा।
पर अब आएगा
जिंदगी से लड़ने का मज़ा।
क्योंकि अब
अपना यहां कुछ नहीं।
क्योंकि अब
अपना यहां कोई नहीं।

Monday 1 June, 2009

नई भर्तियां चालू आहे...

बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।

प्रभाकरण मारा गया। 25 साल पुराने संघर्ष को कुचलने में सेना को 2.5 महीने भी नहीं लगे। उस संघर्ष को...जिसके पास प्रशिक्षित छापामार सेना थी...नौसेना और वायु सेना की ताकत थी...जिसके जहाज इतनी कुव्वत और हिम्मत रखते थे कि राजधानी के आसमान में पहुंचकर राष्ट्रीय वायु सेना के बेस पर बम बरसा आते थे...जिसके लड़ाके किसी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को धमाकों में उड़ा देते थे...और...जिसके पास दुनिया के कई देशों में ऐसे समर्थक थे...जो दूतावासों पर हमला कर देते थे...बड़ी-बड़ी सरकारों को अपनी बात सुनने पर मजबूर कर देते थे...यूएन तक को बयान देने के लिए तैयार कर लेते थे...उस संघर्ष को कुचलने में श्रीलंका जैसे छोटे से देश की सेना को कुचलने में ढाई महीने भी नहीं लगे।

लिट्टे के तीन दशक तक चले संघर्ष की हालत देखकर अपने नक्सली आंदोलन की फिक्र होने लगी है। लिट्टे की लड़ाई के तरीके पर बहस हो सकती है, आंदोलन के भटक जाने की जो बात कही जाती है, उसे लेकर बहस हो सकती है, लेकिन इस बात में तो कोई संशय नहीं है कि लिट्टे का संघर्ष आखिर में एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई ही था। अपना नक्सली आंदोलन भी एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई है। इसके आकार और ताकत का लिट्टे से तो मुकाबला भी नहीं किया जा सकता। और फिर भारत और श्रीलंका की सेना का भी क्या मुकाबला है! यानी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस दिन सरकार ने कड़ा फैसला कर लिया, उस दिन से...

बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।

दो साल पहले हरियाणा के कुछ गांवों में धीरे-धीरे दलित संगठित होने लगे। बैठकें होने लगीं। तथाकथित ऊंची जातियों से उनके संघर्ष की घटनाएं बढ़ने लगीं। अब तक किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया था। फिर अचानक कई जगह से जमीन पर कब्जे की खबरें आने लगीं। ऐसा हुआ तो प्रशासन हरकत में आया। जांच शुरू हुई और पता चला कि इस सब के पीछे कुछ युवा संगठन हैं। ऐसे संगठनों की सूचि बनाई गई, तो सभी में एक बात साझी निकली। सभी ‘जनवादी’ संगठन थे। जांच के दौरान पुलिस को कई जगह से माओवादी साहित्य भी मिला।

बस फिर क्या था...सीआईडी को तुरत-फुरत में लोगों के पीछे लगा दिया गया। पुलिस ने धरपकड़ शुरू कर दी। युवा संगठनों से जुड़े लोगों में हड़कंप मच गया। अंडरग्राउंड हो जाने जैसी चीज़ें पहले उन्होंने कभी सोची भी नहीं थीं। वे लोग इधर-उधर भागने लगे। सबके फोन बंद हो गए। कोई मिलने या बात करने को तैयार नहीं था।

पुलिस ने सबको तो पकड़ा ही नहीं। कुछ लड़के-लड़कियों को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमे दर्ज कर दिए गए। हालांकि कुछ युवाओं को पुलिस काफी मशक्कत के बाद भी नहीं पकड़ पाई। बाद में सुना कि वे छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश चले गए। लेकिन और भी बहुत से ऐसे नौजवान थे, जो इस आंदोलन में सक्रिय थे और जिन्हें पुलिस आसानी से पकड़ सकती थी, लेकिन उन्हें नहीं पकड़ा गया। वैसे, यह सूचना लगातार उन तक पहुंचती रही कि उनका नाम लिस्ट में है और उन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। एक एसपी ने मुझे बताया था कि इन लोगों को गिरफ्तार करना जरूरी नहीं है, पकड़े जाने का डर ही इनके लिए काफी है और रही सही कसर कुछ गिरफ्तारियां पूरी कर देंगी। उस अफसर का कहना था कि हमारा मकसद नौजवानों को गिरफ्तार करना नहीं, इस आंदोलन की चिंगारी को बुझाना है।

यूं चिंगारियां बुझतीं तो दुनिया में कुछ न होता, लेकिन सरकार अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब रही। गतिविधियां बंद हो गईं। जो नौजवान समाज बदल देने निकले थे, उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां पकड़ लीं। जो लड़के-लड़कियां कुछ कर गुजरने को तैयार थे, उनकी शादियां हो गईं। रातों को दीवारों पर नारे लिखनेवाले सरकारी नौकरियां पाने के लिए बी.एड और क्लर्की जैसे कॉम्पिटिशंस की तैयारियों में खो गए। सालभर के अंदर सरकार ने उन्हें भी छोड़ दिया, जो गिरफ्तार किए गए थे।

ऐसा होने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। तैयारी की कमी, जल्दबाजी, अतिउत्साह आदि-आदि...लेकिन मुझे हाल ही में मिले एक नौजवान की बात बहुत याद आती है। कभी आंदोलन में जुटे लड़कों में अपने गीतों से जोश भर देने वाले उस लड़के ने कहा - स्टेट के खिलाफ लड़ना बहुत मुश्किल है।

वैसे मैं इस पूरे घटनाक्रम ने निराश नहीं हूं। मैं तो इसे बड़ी लड़ाई के लिए पहले कदम के तौर पर देखता हूं और खुश हूं कि कुछ युवाओं ने इतनी हिम्मत दिखाई। लेकिन इसका एक निराशाजनक पहलू भी है, जिसे नक्सली आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संकेत के रूप में देखा जा सकता है। जब वे लड़के-लड़कियां गिरफ्तार हुए, तब उनके लिए समाज में एक भी आवाज नहीं उठी। उनकी तरफ से भी नहीं जो उनके हिमायती माने जाते थे। उस दौरान रिपोर्टिन्ग करते हुए मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला, जो सरकारी विभागों में अफसर थे, यूनिवर्सिटियों में प्रफेसर थे, कॉलेजों में लेक्चरर्स थे, जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता थे और इन नौजवानों के साथ काम करते थे। इनकी हौसलाअफजाई में उन लोगों की अहम भूमिका थी। लेकिन जब पुलिस सक्रिय हुई, तो उन लोगों ने सबसे पहले इनसे नाता तोड़ा। इनके बारे में बात करने तक को वे तैयार नहीं थे। इन नौजवानों से अपने रिश्तों को वे उसी तरह छिपा रहे थे, जैसा पंजाब के आतंकवाद के दौर में हुआ करता था।

अगर आंदोलन के मकसद को समझाया गया होता... बात को उस आम आदमी तक पहुंचाया गया होता, जिनकी खातिर लड़ा जा रहा था...उन युवाओं तक पहुंचाया गया होता, जिनकी यह लड़ाई थी, तो एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो सकता था। छात्र सड़कों पर उतर आते, मोर्चे निकलते, हड़तालें होतीं और पता नहीं क्या हो जाता...

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जानते हैं हुआ क्या? इस्माइलाबाद में गिरफ्तार किए गए एक मजदूर ने मुझे बताया कि उसे छूटने के लिए उन्हीं लोगों के हाथ-पांव जोड़ने पड़े, जिनके खिलाफ वह लड़ रहा था, क्योंकि उसके साथियों-सहयोगियों में से कोई भी उसकी मदद के लिए मौजूद नहीं था।

यह हाल पूरे नक्सली आंदोलन का है। डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए उन्हीं पूंजीवादी देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ता नारे लगाते दिखते हैं, जिनके बनाए सिस्टम के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है। वह भी बाहर आकर यही कहते हैं कि हथियारों से लड़ाई जीती नहीं जा सकती। कौन जानता है कि जंगल में बैठे वे पढ़े-लिखे लोग क्यों हथियार उठाए हुए हैं? क्यों वे रोजाना 10-15 पुलिसवालों को मार देते हैं? क्या पुलिसवालों को मारकर ही क्रांति हासिल होगी? मुझे बहुत हैरत होगी, अगर मुझे पता चले कि इन लोगों को नहीं पता है कि मारे गए पुलिसवालों की जगह नए पुलिसवालों को आने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। इस ‘यूज़लेस किलिंग’ से क्रांति कैसे हासिल होगी, मुझे समझ नहीं आता।

मुझे बस इतना समझ आता है कि दशकों की लड़ाई के बाद भी एक जंगल के बाहर एक ऐसा समर्थन तैयार नहीं किया जा सका है, जो उनकी बात को समझता और मानता हो। एक ऐसा समर्थन जो सरकार के किसी कड़े फैसले के खिलाफ सड़कों पर नजर आएगा। एक ऐसा समर्थन जो ताकत बन जाएगा, जब बदलाव के लिए बड़े धक्के की जरूरत होगी। तब तक आप रोज पुलिसवालों को उड़ाते रहिए, नई पुलिसभर्तियां जारी हैं।

(आप में से बहुत से लोग नक्सलवादी आंदोलन की बेहतर समझ रखते हैं। हो सके तो मेरे इन अनुभवों के आधार पर बनी समझ को स्पष्ट करने में मदद करें।)

Friday 8 May, 2009

'हम'...जो औरतों को नंगा घुमाते हैं

फिर एक औरत को नंगा करके गांव में घुमाया गया। सजा के तौर पर। उसका अपराध ही इतना ‘घिनौना’ था कि इससे कम तो सजा क्या मिलती! लड़की को भागने में मदद की। पता नहीं लड़की को भगाया गया या वह ‘प्यार के चक्कर’ में खुद ही चली गई, लेकिन औरत ने किया है, तो ‘अपराध’ बड़ा है। और इतने बड़े अपराध की सजा भी तो बड़ी होगी!

वहां भीड़ जमा होगी। किसी ने पूछा होगा, क्या सज़ा दें? कहीं से आवाज आई होगी, इनके कपड़े फाड़ डालो। वाह...सबके मन की बात कह दी। हां..हां फाड़ डालो। एक ढोल भी मंगाओ। नंगी औरतों के पीछे-पीछे अपनी मर्दानगी का ढिंढोरा पीटने के काम आएगा। सज़ा भी दी जाएगी और सबको बता भी दिया जाएगा कि हम कितने बड़े मर्द हैं।

‘हम’... वही हैं, जो तालिबान को जी भरकर कोसते हैं। वे लड़कियों के स्कूल जलाते हैं, हम उन्हें नामर्द कहते हैं। वे कोड़े बरसाते हैं, हम उन्हें ज़ालिम कहते हैं। वे टीचर्स को भी पर्दों में रखते हैं, हम उन्हें जंगली कहते हैं। ‘हम’, जो हमारी संस्कृति और इज़्ज़त की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं।

‘हम’... जो अपनी बेटियों के मुंह से प्यार नाम का शब्द बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह सुनते ही उबल उठते हैं कि जाट की लड़की चमार के लड़के के साथ भाग गई। उन्हें ढूंढते हैं, पेड़ों से बांधते हैं और जला डालते हैं...ताकि संस्कृति बची रहे। इस काम में लड़की का परिवार पूरी मदद करता है, क्योंकि उसके लिए इज़्ज़त बेटी से बड़ी नहीं। उसके बाद लड़के के परिवार को गांव से निकाल देते हैं।

‘हम’… जो भन्ना उठते हैं, जब लड़कियों को छोटे-छोटे कपड़ों में पब और डिस्को जाते देखते हैं। फौरन एक सेना बनाते हैं...वीरों की सेना। सेना के वीर लड़कियों की जमकर पिटाई करते हैं और उनके कपड़े फाड़ डालते हैं। जिन्हें संस्कृति की परवाह नहीं, उनकी इज़्ज़त को तार-तार किया ही जाना चाहिए। उसके बाद हम ईश्वर की जय बोलकर सबको अपनी वीरता की कहानियां सुनाते हैं।

‘हम’...जो इस बात पर कभी हैरान नहीं होते कि आज भी देश में लड़के और लड़कियों के अलग-अलग स्कूल-कॉलेज हैं। जहां लड़के-लड़की साथ पढ़ते हैं, वहां भी दोनों अलग-अलग पंक्तियों में बैठते हैं। क्यों? संस्कृति का सवाल है। दोनों साथ रहेंगे तो जाने क्या कर बैठेंगे।

‘हम’...जो रेप के लिए लड़की को ही कुसूरवार ठहराते हैं क्योंकि उसने तंग और भड़काऊ कपड़े पहने हुए थे।

‘हम’...जो अपनी गर्लफ्रेंड्स का mms बनाने और उसे सबको दिखाने में गौरव का अनुभव करते हैं और हर mms का पूरा लुत्फ लेते हैं।

‘हम’...यह सब करने के बाद बड़ी शान से टीवी के सामने बैठकर तालिबान की हरकतों को ‘घिनौना न्याय’ बताकर कोसते हैं और अपनी संस्कृति को दुनिया में सबसे महान मानकर खुश होते हैं।

क्या ‘हम’ तालिबान से कम हैं?

कुछ कॉमेंट्स गैर-ब्लॉगरों के


खबर - दो औरतों को निर्वस्त्र घुमाया

(साभार - Navbharattimes.com)

Monday 20 April, 2009

अंडरवेयरवाले क्यों चिल्ला रहे हैं, वोट दो...वोट दो

कल टीवी पर देखा...अब अंडरवेयर बनाने वाले भी वोट डालने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। सब कर रहे हैं। चाय वाले, फिल्म वाले, प्रॉपर्टी वाले, क्रिकेट वाले...सब...चुनाव आयोग वालों को तो खैर इस बात की तन्ख्वाह मिलती है। बाढ़ आ गई है प्रेरणाओं की और प्रेरणा देने वालों की। वोट दो वोट दो...लोकतंत्र को मजबूत करो...आपका एक वोट आपकी किस्मत बदल सकता है। देश बदलना है तो वोट दो।

लेकिन देश कैसे बदल जाएगा, यह बात मुझे समझ नहीं आई। 60 साल से ऊपर हो गए वोट देते। 14 लोकसभा देख चुके हैं। 6 तो 15 साल में ही देख ली थीं। यानी 30 साल के वोट 15 साल में ही डाल लिए। पहले कुछ कम लोग वोट डालते होंगे, क्योंकि वोट डालने के लिए प्रेरणा देने वाले नहीं थे। फिर भी वोट तो डले। सांसद तो बनते ही रहे। लेकिन लोकतंत्र आज तक मजबूत नहीं हुआ। कमजोर ही हुआ। हमने तो संसद में लोकतंत्र को बिलखते ही देखा। फिर इस बार ऐसा क्या होने वाला है कि ज्यादा लोगों के वोट देने से लोकतंत्र मजबूत हो जाएगा? कोई नया विकल्प तो खड़ा नहीं हुआ है। वही कांग्रेस है, वही बीजेपी है, वही मुलायम, लालू, पासवान, करात। सब तो वही हैं। कौन नया आ गया है, जो वोट पाकर लोकशाही को मजबूत करेगा? हमारे वोट से तो यही लोग मजबूत होंगे। इन्हीं में से कोई न कोई सरकार बना लेगा। फिर अगर आज तक इनके हाथों लोकतंत्र मजबूत नहीं हुआ, तो इस बार ज्यादा वोट डालने से कैसे मजबूत हो जाएगा?

40 की जगह 70 परसेंट वोट पड़ भी गए, तो जीतने वालों को 30 की जगह 50 परसेंट वोट मिलेंगे। वे और मजबूत होकर कुर्सी पर बैठेंगे। अपने काम और मजबूती से करेंगे। लेकिन कौन से काम? वही ना, जिन्होंने अब तक लोकतंत्र की जड़ें खोदीं... तो फर्क क्या पड़ने वाला है? फिर ये चाय वाले, फिल्म वाले, क्रिकेट वाले, अंडरवेयर...ये सब क्यों चिल्ला रहे हैं...वोट दो...वोट दो...अब तक जिन्होंने लोकशाही को कमजोर किया, उन्हें मजबूत करने से इन सबका क्या फायदा है?

जरा सोचिए...

Thursday 5 March, 2009

एक कविता पंखों वाली

एक कविता
पंखों वाली
उड़ मुंडेर आ जाती है
खिलती खुलती
हिलती डुलती
दर्द दर्द सा गाती है
गीले सूखे
भूखे रूखे
माने रूठे
सच्चे झूठे
जीवन से जो
शब्द हैं टूटे
उनको चुनकर लाती है
एक कविता
पंखों वाली
उड़ मुंडेर आ जाती है
आंख से झरती
हाथ पे गिरती
गुनती बुनती
सबकी सुनती
मन मन बहती
सबकी कहती
अपना दर्द छिपाती है
एक कविता
पंखों वाली
उड़ मुंडेर आ जाती है।।

(कभी कभी मां जैसी लगती है...पंखों वाली कविता)

Friday 13 February, 2009

चड्डियों की बहस से अनजान


सुना आपने

वैलंटाइंस डे सजधज कर तैयार है। जंग भी अपने चरम पर है। आजादी के दीवानों की और कल्चर के ठेकेदारों की। मुझे यह बहस कभी समझ नहीं आई। जब भी मैंने इस बहस के बारे में सोचा, मुझे छत्तीसगढ़ के उस छोटे से गांव में मिली 'वह' और उसकी बेटी याद आ गई। उसके याद आते ही लगा, कितनी जरूरी है वैलंटाइंस डे मनाने की आजादी और आखिर किसके लिए है यह संस्कृति? उसकी कहानी और उसके सवाल कहां हैं ? जब तक उसके सवालों के जवाब नहीं दिए जाते, तब तक क्या इस तरह की बहस फिज़ूल नहीं है?

चड्डियों की बहस से अनजान
कॉन्डम की पहुंच से दूर
वह
आज किसी और फिक्र में है।
सर्दी तो जी ली गई
बदन बिछाकर
हाथ ओढ़कर,
खुद-खुद कर
थोड़ी-बहुत हरियाली उगलती
मरियल सी जमीन के सहारे,
पर गर्मी में
गांव की सूखी, तरसती जमीन से
कैसे मांगेगी आसरा?
इस बार फिर जाना होगा
मांसल पेड़ों के जंगल में
पत्थर चुगने के लिए,
जहां कोलतार के नीचे सुबकती जमीन का
अपना ही ठिकाना नहीं।
उससे पहले खरीदनी होगी
दो मीटर रंगीन इज़्ज़त,
क्योंकि उस जंगल में
इस बार बेटी भी होगी
रोटी देने वाले पेड़ों की निगाहों के सामने।
आओ, उसे बताएं
हम तुम्हारे लिए इंतजाम कर रहे हैं
संस्कृति में लिपटी इज़्ज़त का
और वैलंटाइंस डे मनाने की
आज़ादी का।
रोटी तो खैर,
तुम्हें उन घूरते पेड़ों से ही लेनी होगी।।

Saturday 7 February, 2009

बहुत शुक्रिया शनिदेव...

सुना आपने...

आज शनिवार है...सुबह होते ही हजारों बच्चे सड़कों पर निकल पड़े...हाथ में लटकते बर्तन...बर्तन में तेल...और तेल में डूबे लोहे के पतरे...इस लोहे के पतरे को लोग शनिदेव कहते हैं...पूजते हैं...ट्रैफिक लाइट्स और जहां-तहां उग आए शनि मंदिरों के सामने इन बच्चों की भीड़...हर गाड़ी के पास जाएंगे...शीशा उतरेगा...एक, दो, कभी-कभी पांच रुपये का सिक्का...टन्न...कुछ लोग उस तेल में मुंह भी देखना चाहते हैं...

मुझे नहीं पता कैसे इन बच्चों के दिमाग में यह बात आई होगी...कैसे इन्हें पता चला होगा कि ये बड़ी-बड़ी गाड़ियों वाले...इस लोहे के पतरे से डरते हैं...यूं किसी के मांगने पर कुछ दें न दें...पर उस पतरे के नाम पर जरूर देते हैं...पिछले कुछ सालों में शनि मंदिरों की तादाद कितनी बढ़ गई है...और मंदिरों के सामने शनिवार को लगने वाली भीड़ भी...भीड़ के साथ ही बढ़े हैं ये बच्चे...कई बच्चे क्रिएटिव होते हैं...बर्तन को सजाकर लाते हैं...लाल कपड़ा...घोटे वाला...उस बर्तन में सिक्के ज्यादा डलते होंगे शायद...शनिवार को इन्हें फटे-पुराने कपड़े भी नहीं पहनने पड़ते...बेचारा भी नहीं दिखना पड़ता...जिन्हें भिखारियों से दिक्कत है...और जिन्हें भीख मांगते बच्चों पर तरस आता है...उन्हें भी इनसे समस्या नहीं है...एक-दो रुपये देकर बलाएं टलती हैं, तो हर्ज क्या है...इन बच्चों को लेकर हमारी चिंता कितनी है? बस गाड़ी का शीशा उतारते वक्त एक दूं या दो के गणित जितनी? भला हो शनिदेव का...इन बच्चों को संभाले है...भिखारी बनाए बिना...शुक्रिया शनिदेव...

Wednesday 4 February, 2009

मेरे लिए बच्चा पैदा कर दो, प्लीज

सुना आपने

बिल्कुल सच्ची बात है...सुनीता मां बन गई है...सुनीता फिर से मां बन गई है...सुनीता का सुनीता होना अहम नहीं है...कोई भी हो सकती है...लड़कियां भले ही कम हों, मां बनने वाली लड़कियों की हमारे यहां कोई कमी नहीं है...वैसे जिस दर से हमारे यहां बच्चे पैदा होते हैं, सुनीता का सुनीता होना और मां बनना दोनों ही अतिसामान्य घटनाएं होतीं...अगर यह बच्चा खास न होता...इसीलिए सोचा आपको भी बता दूं...सुनीता दोबारा मां बन गई है...अभी-अभी फोन आया...मैं हैरान था...क्यों? उनका तो एक बेटा है...7-8 साल का...इतने साल बाद अचानक...हां, जरूरी था...जरूरी, क्यों...ये बच्चा उसने अपने लिए पैदा नहीं किया है...यानी??...यानी सुनीता ने यह बच्चा अपनी ननद के लिए पैदा किया है...ननद के लिए...मेरी हैरत के घोड़ों की लगाम खुल चुकी थी...हां, उसकी ननद मां नहीं बन सकती...इसलिए उसने ही इल्तिजा की थी कि मेरे लिए एक बच्चा पैदा कर दो...ऐसा भी होता है????...अरे तुम तो ऐसे हैरान हो रहे हो, जैसे यह पहली बार हुआ है...नहीं पहली बार तो नहीं, लेकिन आपको पता है किराए की कोख के लिए कितनी बहस चल रही है देश-दुनिया में...तुम्हारे देश और दुनिया वाले करते होंगे ऐसी बातों पर बहस...यहां गांव में ऐसा कुछ नहीं होता...तो क्या ननद ने कहा और सुनीता मान गई?...हां, ऐसे ही होता है...वो जो रामफल है ना...कौन वो जिसका भाई मेरे साथ पढ़ता था...हां वही...रामफल का बेटा उसकी बहन ने दिया है उसे पैदा करके...और वो जो जगबीर है ना...

लो जी...दसियों कहानियां हैं ऐसी मेरे आस-पास ही...हैरत के घोड़े काफी दूर निकल गए थे...मुझे लगा अब उन्हें वापस बुला लूं...लेकिन नहीं, अभी तो हैरत का सफर बाकी था...तो सुनीता कब दे देगी उस बच्चे को अपनी ननद को...नहीं देगी...यानी बच्चा ननद को नहीं देगी?...ना...क्यों...उसकी ननद ने मना कर दिया...क्यों मना कर दिया? उसी के कहने पर तो पैदा किया...अरे ये तो पहले ही तय था...क्या...उसकी ननद ने पहले ही कहा था...लड़का हुआ तभी लूंगी...लड़की हुई है...

मैंने हैरत के सारे घोड़ों को मन के अस्तबल में बंद कर दिया है...

Tuesday 27 January, 2009

प्रेजिडंट पाटिल आप महान कैसे हैं...

सुना आपने....राजपथ पर पहली महिला प्रेजिडंट की सलामी ने इतिहास रच दिया...कितना आसान है इतिहास रचना...


दिल्ली के राजपथ पर
उस बड़ी सी तोप का मुंह
जब एक महिला प्रेज़िडंट की ओर झुका
तो वक्त रुका
और इतिहास तुरंत ले आया
अपनी पोथी
एक और नाम दर्ज करने के लिए।

कितना आसान है
एक महिला का नाम
इतिहास में दर्ज करना,
हर काम जिसे महान करार दिया गया है
औरत पहली बार ही तो करती है।
क्योंकि रोटी को हर बार गोल बना देना
कोई महान काम नहीं है
रोज सुबह
परिवार में सबसे पहले जगकर
नहाना, धोना, सफाई, बर्तन करने के बाद
सबके लिए नाश्ता बना देना
कोई महान काम नहीं है

बड़ी-बड़ी मशीनें चलाना
और चांद पर हो आना
महान काम हो सकता है
लेकिन
सबके कपड़े धोना, आयरन करना
बच्चों को स्कूल से लाना
सबकी पसंद का खाना बनाना
और सबके नखरे उठाते हुए
सबको अलग-अलग खिलाना
कोई महान काम नहीं है।

मंत्री, प्रधानमंत्री, प्रेज़िडंट बनना
हवाई जहाज उड़ाना
बड़े-बड़े बैंकों को चलाना
औरत को महान बना सकता है,
लेकिन पाई-पाई जोड़कर घर बनाना
महान काम नहीं है।

एक औरत
जब दुनिया की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर
भाषण देती है
नारे लगाती है
मोर्चे चलाती है
तो महान हो जाती है
लेकिन पति की कड़वी से कड़वी बात को
चुपचाप सह जाना
अपनी इच्छाओं को दबा लेना
घर और बच्चों की खातिर
मुस्कुराते हुए
अंदर ही अंदर सुबकते जाना
कोई महान काम नहीं है।

जो लोग ऐश्वर्या को विश्वसुंदरी कहकर पुकारते हैं
वही लोग
जरा सा दुपट्टा खिसक जाने पर
अपनी बेटियों को जब दुत्कारते हैं
तो बताते हैं
कि महानता की परिभाषा
पुरुष अपनी खुशी के लिए रचता है
और इसमें
हर उस औरत को शामिल करने से बचता है
जो उसकी निजी संपत्ति है।

प्रेज़िडंट पाटिल
जब आप
एक औरत की तरह
सिर पर पल्ला लिए
गली-मोहल्लों में सबका दर्द बांटती
घूमती नजर आती हैं
तब इतिहास आपको पूछता तक नहीं

जब आप पुरुष की तरह
राजपथ पर सलामी उठाती हैं
तो महान हो जाती है?

यहां अच्छी मां,
अच्छी बेटी
अच्छी पत्नी
अच्छी बहन बनना
कोई बड़ी बात नहीं है,
जब किसी वजह से
औरत सिर्फ औरत रह जाती है
तो बड़ी नहीं कहलाती है
हां, वही औरत
अगर पुरुष बन जाती है
तो महान कहलाती है।
क्योंकि
इस आदिम समाज में
पुरुष बनना महानता की पहचान है
सिर्फ औरत रह जाना
कोई महान काम नहीं है।

Saturday 24 January, 2009

चलती बस में खड़ी लड़कियां

(सुना आपने...आज बालिका दिवस है...क्यों है?)

दिल्ली की चलती बस में खड़ी लड़कियां
बहुत इंटेलिजेंट होती हैं
वे अच्छी तरह समझती हैं
चेहरों की जबान,
आंखों के इशारों को ट्रांसलेट करना
उनके बाएं हाथ का खेल है,
माल, पटाखा और बम जैसे शब्दों के अर्थ
उन्हें अच्छी तरह मालूम हैं,
वे उन शब्दों के अर्थ भी जानती हैं
जो वे कभी नहीं बोलतीं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते जैसी बातों को
वे बकवास कहती हैं,
बस के अचानक ब्रेक लगने का दर्द
वे सीटों पर बैठे उन लोगों से भी बेहतर जानती हैं
जिनके सिर सामने की रॉड से टकराते हैं।

दिल्ली की चलती बस में खड़ी लड़कियां
मूर्ख नहीं होतीं
चुप होती हैं।
वे जानती हैं
बोलना कभी-कभी काफी महंगा पड़ जाता है,
वे जानती हैं कि इधर-उधर फिसलते हाथों में
तेजाब भी हो सकता है।
वे जानती हैं
3 रुपये की टिकट की असली कीमत,
वे जानती हैं
बस में सफर करते हर आदमी की औकात,
इसलिए
वे बस से उतरते ही खिलखिला देती हैं।

दिल्ली की चलती बस में खड़े
लड़के कैसे होते हैं?

Thursday 22 January, 2009

अस्पतालः उदासियों की भीड़ और उम्मीदों का मजमा

सुना आपने

अस्पताल में था...तीन दिन और दो रात का स्टे...फ्री नहीं था...सीजनल डिस्काउंट भी नहीं था...मेडिक्लेम वालों के पास भी सौ बहाने हैं पैसे न देने के...22-23 इजेक्शंस, 12-15 टेबलेट्स, दो उनींदी रातें और कई हजार देकर किसी तरह पीछा छूटा...डॉक्टर तो आने ही नहीं दे रहा था...बचपन में मामा के घर बिताए दिन याद आ गए...वे भी आने नहीं देते थे...इसी तरह इसरार करते थे...दो दिन और रह जाओ...अभी तो छुट्टियां बाकी हैं...प्लीज, अब जाने दीजिए...होम वर्क भी तो करना है...

घर आया...दर्द ज्यों को त्यों था...बिस्तर पर लेटते हुए आह निकली तो अस्पताल याद आ गया...अजीब जगह है...उदासियों की भीड़ और उम्मीदों का मजमा...मंदिर की तरह...मस्जिद की तरह...गुरुद्वारे और और चर्च को भी गिन लीजिए...नहीं तो कहेंगे तकलीफ में सांप्रदायिक हो गया हूं...इन जगहों से अस्पताल थोड़ा बेहतर है...डॉक्टर साहब भगवान हो जाते हैं...भगवान डॉक्टर नहीं हो पाता...डॉक्टर न करे तो गला पक़ड़ सकते हैं...भगवान न करे तो...न करे...डॉक्टर जितने मांगेगा, देने पड़ेंगे...भगवान मांगता नहीं फिर भी खूब मिल जाते हैं...आदमी और पत्थर में कुछ तो फर्क हो..

अस्पताल में उम्मीदें ज्यादा होती हैं...या उम्मीद करने का अधिकार ज्यादा होता है...हां, गारंटी कहीं नहीं है...देर और अंधेर की तसल्ली दोनों जगह है...डॉक्टर अंधेरे में रखे रहते हैं और देर किए जाते हैं...भगवान का मुझे कोई एक्सपीरिएंस नहीं है...उस बच्चे को भी नहीं होगा...प्रभजोत...दो साल का है...बहुत प्यारा है...दोनों फिजियोथेरेपी के लिए जाते तो मुलाकात हो जाती...छत से गिरा था...डर की वजह से झुक गया...वहां सब कहते हैं...इस मासूम के साथ इतना अन्याय...सब भगवान की माया है...सबको भगवान का एक्सपीरिएंस है...अब डॉक्टर की माया देखनी है...मां रोज उसे लाती है...उदास है...दिखाती नहीं है...बस उम्मीदें चमकती रहती हैं आंखों में...बच्चे को तो दोनों का ही नहीं पता...लेकिन उसे ‘डॉतर अंकल’ पसंद हैं...

लेकिन उस महिला को पता है...वही जो सामने वाली दीवार के साथ लगी खूंटी पर गर्दन लटकाए बैठी रहती है...मजाक नहीं सच...गर्दन दुखने लगी है...सिलाई का काम करती है...घर पर ही...पतली सी है...गरीब दिखती है...बताइए, देखने से ही गरीब और अमीर का पता चल जाता है...सब ब्रैंड्स की माया है...बोलने की आदत काफी है, इसलिए नर्सों को सब बता दिया...मुझे भी सुनने की आदत है...सब सुन लिया...10-15 साल हो गए...लगातार सिलाई कर रही है...झुकी रहती होगी...गर्दन भी झुक गई है...अब दुखती है...फिजियोथेरेपिस्ट उसकी गर्दन को कॉलर में लपेटते हैं और खूंटी से लटका देते हैं...मकैनिकल खूंटी है...ऊपर की ओर खींचती है...वह भी ऊपर खिंच जाती है...सब हंस पड़ते हैं...वह झेंप जाती है...मेरा वजन कम है ना...उम्मीदें हंस देती है...मुझे जल्दी ठीक कर दीजिए...काम का बहुत हर्जा होता है...अभी तुम्हें काम नहीं करना है...काम नहीं करूंगी तो कैसे चलेगा...अब उदासी हंस देती है...

Saturday 10 January, 2009

कोई मेरे मोहल्ले को बचा लो, प्लीज...

सुना आपने

सत्यम ढह गई...मुझे उसकी फिक्र तो है...लेकिन...

इस बार घर गया...तो डर गया...मेरा मोहल्ला बर्बादी के कगार पर है...मेरे छोटे से शहर का बड़ा सा मोहल्ला...सबसे अमीर मोहल्ला...तीन-साढ़े तीन सौ घर...कहते हैं इस मोहल्ले के घर शहर में सबसे अच्छे हैं...अब तो वहां कुछ बड़े-बड़े बिल्डर अपार्टमेंट्स बना रहे हैं, लेकिन कभी यह मोहल्ला सबसे अच्छा हुआ करता था...शायद इसीलिए इसका नाम मॉडल टाउन रखा गया होगा...मॉडल टाउन मुझे पसंद है...मेरा घर है वहां...मेरा बचपन है...बचपन के दोस्त हैं...गिल्ली-डंडे हैं...छोटे-बड़े झगड़े हैं...वे घर हैं, जिनकी दीवारों पर चढ़कर मैं अमरूद चुराया करता था...उन घरों में रहने वाले लोग हैं...हैं नहीं थे...एक घर के सामने से गुजरा...घर में अमरूद का पेड़ तो है...लोग नहीं हैं...घर के बाहर ताला लगा है...ताले पर एक सील है...सुना है एक प्राइवेट बैंक ने ताला लगा दिया है...लोन नहीं चुकाया गया...लोन??? ये घर तो होम लोन पर नहीं बने हैं...ये तो पुराने हैं...होम लोन नामक बीमारी से भी पुराने...फिर?...फिर भी घर पर कर्ज है...

सुना है सालभर पहले यहां लोन नाम की बीमारी आई थी...साथ में बहुत सारा पैसा लाई थी...घर के कागज दो, पैसा लो...लोगों ने घर दे दिए...पैसे ले लिए...बीमारी भी ले ली...बीमारी फैलती गई...घर घटते गए...सुना है 90 फीसदी घरों के कागज बैंकों में पहुंच गए...धीरे-धीरे पैसा घटने लगा...पैसे से कार आई...बीमारी और बढ़ी...बाइक्स आई...बीमारी और बढ़ी...ब्रैंडेड कपड़े आए...मुझे अक्सर हैरत होती थी कि ये बड़े-बड़े ब्रैंड्स मेरे छोटे से शहर में शोरूम क्यों खोल रहे हैं...सोचता था मनमोहन सिंह जी का असर है...चिदंबरम की तरक्की छोटी-छोटी जगहों तक पहुंच रही है...यहां तो सत्यम जैसा महल ही रेत से बना था...

सुना है लोन की दर हर महीने बढ़ती है...इनकम तो नहीं बढ़ती...कैसे चुकाएंगे लोन...मेरे मोहल्ले में महल तो नहीं, घर हैं बस...उनकी जड़ों में भी रेत भर दिया है, इस सत्यम रूपी तरक्की ने...अब शोरूम तो हैं, घर नहीं हैं...बच्चों के पास बाइक्स तो हैं...घर नहीं हैं...मोहल्ले में कारें तो बढ़ गई हैं...घर कम हो गए हैं...सुना है चार घरों में ताले लग चुके हैं...किस घर में कब ताला लग जाए कोई नहीं जानता...कोई मेरे मोहल्ले को बचा लो...कोई राहत पैकिज दे दो...प्लीज...

Monday 5 January, 2009

साथियों के कटते हाथ देखकर...

सुना आपने

स्पेशल ईकॉनॉमिक ज़ोन (सेज़) के नौ नए प्रस्ताव आए हैं। वाह भई वाह...क्या मंदी है...लोगों की नौकरियां जा रही हैं...पर सेज के लिए सब ठीक है....असल में कसूर हमारा ही है....

अब तक
तुम चुप रहे
और तुमने देखी
इतिहास की दोहराई
आधुनिक टॉमस रो का
श्वेतांबरी जहांगीरों से मिलन।
कुछ दिन ठहरो,
तुम बस कुछ दिन और ठहरो.
धीरे-धीरे
ये टॉमस रो, ले आएंगे
वही पुरानी, हाथ काटती
विदेशी तलवार
तुम तक भी।
और तुम
जो आज चुप हो
अपने साथियों के कटते हाथ देखकर
उस वक्त भी चुप रहना।
तुम, उस वक्त भी चुप रहना
क्योंकि यही टॉमस रो
तुम्हारे ही बाजारों में
तुम्हें बेचेंगे
नकली विदेशी हाथ।।

(सुना है टॉमस रो ईस्ट इंडिया कंपनी का संदेश लेकर जहांगीर के पास आया था १६१५ में)

Thursday 1 January, 2009

कॉमेंट्स तो सब रवीश के यहां चले जाते हैं

सुना आपने

साल के पहले ही दिन मेरा झगड़ा हो गया
मेरे भीतर बैठा ब्लॉगर अड़कर खड़ा हो गया
बोला, क्यों लिखा जाए हर बवाल पर
जाओ मैं नहीं लिखता नए साल पर
मैं हैरान परेशान उसे मनाने लगा
नए साल पर लिखने के फायदे बताने लगा
भाई, आज तो अग्रीगेटर्स पर दिखना होगा
नए साल पर जरूर लिखना होगा
मूर्ख देख...लिखा है इसी पर सबने
बवाल और ब्लॉगरों की तो
जोड़ी बना दी रब ने
कुछ भी हो जाए टूट पड़ना है
हिट्स आएं न आएं
पोस्ट के मामले में नहीं पिछड़ना है

और कॉमेंट्स? उसने आंखें तरेरी
सच कहूं, जबान बंद हो गई मेरी
हम लिखते रहते हैं और हाथ मले जाते हैं
कॉमेंट्स सारे रवीश के यहां चले जाते हैं
गली-मोहल्ले तुम्हें पूछते हैं नहीं
अपने अलावा छपते हो तुम कहीं?
नारी संवेदना के लिए लोग बेटियों के ब्लॉग पढ़ते हैं
और कविता प्रेमियों को गौरव सोलंकी ले उड़ते हैं
हंसी-मजाक में ताऊ जैसे कई उस्ताद हैं
और विचार में तो बड़े-बड़े जिंदाबाद हैं
तुम तो फालतू के उसूली हो
ये पढ़े-लिखों की दुनिया है
तुम किस खेत की मूली हो

मैंने कहा यूं नाम मत ले कम्बख्त, मरवाएगा
तू तो ये ब्लॉग ही बंद करवाएगा
ब्लॉगिंग की दुनिया बहुत खास है
यहां बराबरी का आभास है
जो लिखता है, वो दिखता है
लेकिन सिर्फ अच्छा माल बिकता है
अच्छा लिख, तुझे भी टिप्पणी मिलेगी
लेकिन, चुप रहने से दुकान नहीं चलेगी
अपने भीतर से कुछ अच्छा सा निकाल
नए साल पर सबसे अलग कुछ लिख डाल
एक जनवरी है, नए साल पर सब पढ़ेंगे
दिखेंगे तो हम भी नजरों में चढ़ेंगे

बैठा तो अभी नहीं है, थोड़ा ढीला हो गया है
दिखने के लालच में लाल से पीला हो गया है
जब तक मैं इसे मनाऊं
और हम मिलकर कुछ अच्छा लिख लाएं
आपको ‘सुना आपने’ की ओर से
नए साल की शुभकामनाएं