एक कविता
पंखों वाली
उड़ मुंडेर आ जाती है
खिलती खुलती
हिलती डुलती
दर्द दर्द सा गाती है
गीले सूखे
भूखे रूखे
माने रूठे
सच्चे झूठे
जीवन से जो
शब्द हैं टूटे
उनको चुनकर लाती है
एक कविता
पंखों वाली
उड़ मुंडेर आ जाती है
आंख से झरती
हाथ पे गिरती
गुनती बुनती
सबकी सुनती
मन मन बहती
सबकी कहती
अपना दर्द छिपाती है
एक कविता
पंखों वाली
उड़ मुंडेर आ जाती है।।
(कभी कभी मां जैसी लगती है...पंखों वाली कविता)
Thursday 5 March, 2009
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