Monday 27 July, 2009

कत्ल से पहले बहनें...बहनों के कत्ल के बाद

गांव से लौटा हूं...हरियाणा के गांव से...उसी हरियाणा के गांव से जहां लड़कियों का कत्ल जारी है...इज़्ज़त की बलिवेदी पर...

कत्ल से पहले
बहनें सुबह हैं
सुबह की चौखट पर फुदकती चिड़िया हैं
चिड़िया के परों पर ओस का कतरा हैं
कतरे के भीतर गीली रोशनी हैं
रोशनी का फैलता पागलपन हैं
पागलपन की तन्हाई हैं
तन्हाई में चुपके से जन्मती मोहब्बत हैं
मोहब्बत की दुनियावी घबराहट हैं
घबराहट का पहला कदम हैं
पहले कदम की मुखालफत हैं
मुखालफत का कत्ल हैं
कत्ल की रात हैं...

कत्ल के बाद
बहनें... वक्त हैं
वक्त के बोलते रिवाज़ हैं
रिवाज़ों की बढ़ती जरूरत हैं
जरूरतों की भटकती अहमियत हैं
अहमियत का सुर्ख अहम हैं
अहम की पिघलती इज़्ज़त हैं
इज़्ज़त की वेदी हैं
वेदी की ठंडी अग्नि हैं
अग्नि की पवित्रता हैं
पवित्रता की बासी फूल हैं
फूलों की सिसकती माला हैं
मालाओं के पीछे की चुप तस्वीर हैं


बहनों के कत्ल से पहले
भाई...मर्द हैं
बहनों के कत्ल के बाद
भाई... मर्द हैं।।

Friday 17 July, 2009

सच का सामनाः कहीं यह गेम शो हमें डरा न दे

क्या कभी आपने पति का कत्ल करने की सोची...क्या आपकी कोई नाजायज़ औलाद है...क्या आपको लगता है कि आपकी बीवी आपसे ज्यादा आपके पैसे से प्यार करती है...ये सवाल हैं स्टार प्लस के गेम शो ‘सच का सामना’ से...निजी हैं...बहुत मुश्किल हैं...डरावने हैं...कौन होगा जो इस तरह के सवालों के सामने खड़ा भी होना चाहेगा...जवाब देना तो बाद की बात है...क्या आप चाहेंगे...एक करोड़ रुपये के लिए भी नहीं?

यही बड़ा सवाल है...और आजकल सबके मन में है...क्या पैसे के लिए टीवी पर दुनियाभर के सामने अपने निजी सच जाहिर करना सही है...क्या पैसे की कीमत रिश्तों से ज्यादा है...क्या संवेदनाओं की कीमत लगाई जा सकती है...क्या अपनों का दिल तोड़कर अमीर बनना सही है...

इन सवालों के जवाब सबके अपने होंगे...इन सवालों के जवाब हां या ना में नहीं हो सकते...किसी सवाल का जवाब हां या ना में नहीं हो सकता...और सच बोलना हो तो कतई नहीं हो सकता...क्योंकि कोई ऐसा नहीं जिसका अपना सच न हो...किसी की पुरानी किताबें...किसी के पर्स में कुछ टुकड़े कागज़...कहीं किसी पुरानी फाइल में कुछ रद्दी अक्षर...स्टोर रूम में रखी एक गत्ते की पेटी...अनजान नाम से बना एक ईमेल आईडी...अजीब नाम से फोन में कोई नंबर...डायरी के कुछ ऐसे पन्ने जो चाहकर भी फाड़े नहीं जा सके...ड्राइव करते वक्त आया वह खयाल...

लेकिन सच अकेला नहीं होता...हर सच के साथ एक कहानी होती है...छिपे हुए सच की कहानी तो दर्दनाक होती है...हर छिपा हुआ सच वजहों और सफाइयों के ढेर के नीचे दुबका रहता है...हम सब उस ढेर को ढोते हैं ताकि सच छिपा रहे...

लेकिन स्टार प्लस का यह गेम शो हम सबको सोचने पर मजबूर तो करेगा...वहां जब सवाल पूछे जाएंगे...तो हमारे भीतर दुबका सच वजहों और सफाइयों के उस ढेर में कुलबुलाएगा जरूर...इधर राजीव खंडेलवाल सवाल करेगा और उधर हमारा ध्यान परछत्ती में रखी उस पेटी की ओर जाएगा जरूर...

मिस्टर राजीव खंडेलवाल, हम तो खुद से भी सच नहीं बोलेते...

Tuesday 14 July, 2009

गाय का गोश्त और हड्डियां मेरी चौखट पर फैला दीं

“नए घर में तीसरी या चौथी सुबह देखा कि चौखट के पास गाय का गोश्त और कुछ हड्डियां फैलाई गईं थीं। यह सिर्फ शरारत नहीं थी। मोहल्ले के कुछ उत्साही लड़कों द्वारा विरोध और गुस्से का प्रदर्शन था कि मैं मकान छोड़कर भाग जाऊं।”

गुलशेर खां शानी यानी एक ‘मुस्लिम हिंदी लेखक’। उनकी प्रतिनिधि कहानियों की भूमिका में लोठर लुत्से ने उनकी जिंदगी की एक घटना का ज़िक्र किया है। घटना बहुत महत्वपूर्ण है, समझने के लिहाज से भी और महसूस करने के लिए लिहाज से भी। दरअसल, यह घटना आईना भी है और तमाचा भी...


शानी अपने परिवार के साथ ग्वालियर गए। तब उनके साथी उनके वास्तविक नाम से परिचित नहीं थे। शानी ने कहा कि वह गैर मुस्लिम पड़ोस में रहने को तरजीह देंगे। साथी ने वजह पूछी तो शानी ने बताया कि मैं घोर धार्मिक वातावरण और कट्टरपंथी माहौल से दूर रहना चाहता हूं। साथी कुछ देर तक शानी को घूरते रहे और फिर उनके कान के पास आकर उन्हें पूरी तरह कॉन्फिडेंस में लेते हुए धीरे-से बोले – सुनिए, डरने की कोई बात नहीं। यहां साले मियां लोगों को इतना मारा है, इतना मारा है कि अब तो उनकी आंख उठाने की भी हिम्मत नहीं रही।

आखिरकार शानी ने एक खालिस मुस्लिम पड़ोस में मकान खोज लिया। नए घर में तीसरी या चौथी सुबह उन्होंने देखा कि उनकी चौखट के पास गाय का गोश्त और कुछ हड्डियां फैलाई गईं थीं।

‘यह सिर्फ शरारत नहीं थी। मोहल्ले के कुछ उत्साही लड़कों द्वारा विरोध और गुस्से का प्रदर्शन था कि मैं मकान छोड़कर भाग जाऊं।’ शानी को गलती से साहनी नाम का पंजाबी हिंदू समझ लिया गया था।

(शानी की प्रतिनिधि कहानियां से साभार)