गांव से लौटा हूं...हरियाणा के गांव से...उसी हरियाणा के गांव से जहां लड़कियों का कत्ल जारी है...इज़्ज़त की बलिवेदी पर...
कत्ल से पहले
बहनें सुबह हैं
सुबह की चौखट पर फुदकती चिड़िया हैं
चिड़िया के परों पर ओस का कतरा हैं
कतरे के भीतर गीली रोशनी हैं
रोशनी का फैलता पागलपन हैं
पागलपन की तन्हाई हैं
तन्हाई में चुपके से जन्मती मोहब्बत हैं
मोहब्बत की दुनियावी घबराहट हैं
घबराहट का पहला कदम हैं
पहले कदम की मुखालफत हैं
मुखालफत का कत्ल हैं
कत्ल की रात हैं...
कत्ल के बाद
बहनें... वक्त हैं
वक्त के बोलते रिवाज़ हैं
रिवाज़ों की बढ़ती जरूरत हैं
जरूरतों की भटकती अहमियत हैं
अहमियत का सुर्ख अहम हैं
अहम की पिघलती इज़्ज़त हैं
इज़्ज़त की वेदी हैं
वेदी की ठंडी अग्नि हैं
अग्नि की पवित्रता हैं
पवित्रता की बासी फूल हैं
फूलों की सिसकती माला हैं
मालाओं के पीछे की चुप तस्वीर हैं
बहनों के कत्ल से पहले
भाई...मर्द हैं
बहनों के कत्ल के बाद
भाई... मर्द हैं।।
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Monday, 27 July 2009
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