Saturday 24 October, 2009

प्लीज, 'जेल' के सीन सेंसर न करो

एक फिल्म आनेवाली है...जेल...सुना है मधुर भंडारकर की इस फिल्म पर सेंसर ने बेरहमी से कैंची चलाई है। 7 सीन काट डाले हैं। इनमें कुछ न्यूड सीन हैं और कुछ जेल की वीभत्स जिंदगी दिखाते हैं...नहीं काटने चाहिए थे जेल वाले सीन...लोगों के सामने सच आना चाहिए। कितना जानते हैं लोग जेल की जिंदगी के बारे में...मुझे ‘उसने’ बताया था...वह बस में मेरी बगलवाली सीट पर बैठा था...मेरे हाथ में अखबार था और पढ़ वह रहा था...कोने में ‘जेल’ फिल्म की खबर थी –

जेल की जिंदगी का सच बहुत भयानक होता है – नील नितिन मुकेश

उसकी आंखें उसी पर गड़ी थीं...वे निगाहें जब डिस्टर्ब करने लगीं, तो मैंने अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया...तब ध्यान दिया...उसके चेहरे पर दो अजीब चीजें थीं...एक तो दाढ़ी...जैसे सदियों से वहीं जमी हो...और उसकी आंखें...छोटी-छोटी आंखें भी डरावनी हो सकती हैं, उसी दिन महसूस हुआ...उसने मेरी तरफ देखा तो मैं डर गया...वह भांप गया और मुस्कुरा दिया...बोला, सालभर से दाढ़ी नहीं बनाई है।

क्यों?

बस, जेल में सर्वाइव करने के लिए कुछ टोटके करने होते हैं।

जेल में??? मेरे मुंह से शब्द मुश्किल से निकले थे।

जी...वहीं से आ रहा हूं।

मेरे चेहरे पर कई भाव एकसाथ आ गए। उसने पकड़ लिया। बोला, मर्डर केस में अंदर था। आज ही जमानत पर छूटा हूं एक साल बाद। इस एक साल में असली चेहरे देखे हैं और इतनी करीब से देखे हैं कि हर तरह के भावों को पहचानने लगा हूं।

मैं थोड़ा कंफर्टेबल हो गया था। बोला, कैसी थी जेल की जिंदगी?

जैसी फिल्मों में दिखाते हैं वैसी तो बिल्कुल नहीं थी (उसने बोलना शुरू किया और बोलता ही गया, मानो कब से चुप बैठा हो) जेल की बैरकों में घड़ी नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि तब तो रहना मौत से बदतर हो जाएगा। लोग दिनभर बैठे वक्त का अंदाजा लगाते रहते हैं और वक्त कटता जाता है। लेकिन घड़ी सामने हो तो उसे देख-देखकर तो टाइम गुजरेगा ही नहीं। एक आदमी 10 साल से अंदर था। फिर उसकी रिहाई का वक्त आया। उसे शुक्रवार को रिहा होना था, लेकिन किसी वजह से टल गया। अब उसे सोमवार तक इंतजार करना था। 10 साल जेल में काटनेवाला आदमी दो दिन में ही पागल सा हो गया।

मैं और जानना चाहता था। वह बोल रहा था, जेल में कुछ खूंखार कैदियों का ही हुक्म चलता है। वहां वे बिल्कुल निरंकुश होते हैं, क्योंकि उन्हें किसी का डर नहीं होता। जो जेल पहुंच ही गया, उसे किसका डर। वे लोगों के साथ सब कुछ करते हैं...सब कुछ। उन्हीं की देखादेखी मैंने भी दाढ़ी रख ली थी, ताकि मासूम न लगूं। जो जितना मासूम, उसे उतना ज्यादा खतरा। मजे की बात है कि जेल में कानून तोड़ने की वजह से डालते हैं, लेकिन वहां कोई कानून नहीं चलता। वहां सिर्फ जंगल का कानून चलता है। जो ताकतवर है, वही जिएगा। पिटाई तो आम बात है, रेप भी हो जाए तो कोई चौंकता नहीं।

आपको जेल की सबसे खराब बात क्या लगी? पूछते ही मैं समझ गया कि बेवकूफीभरा सवाल है। लेकिन उसने जवाब दिया – यही कि वहां बंद ज्यादातर लोग अपराधी नहीं हैं। बोलते-बोलते वह खड़ा हो गया। उसे उतरना था। मैंने झिझकते हुए पूछा – क्या ...आपने...सच में...कत्ल किया था?

वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुराया और बिना कुछ बोले बस से उतर गया।

तब से मैं जेल की जिंदगी का सच जानना चाहता हूं। इसीलिए मैं चाहता हूं कि सेंसर बोर्ड ‘जेल’ फिल्म के सीन न काटे। आखिर कब तक कोई और फैसला करेगा कि हम क्या देखें और क्या नहीं।

वैसे, आप जानते हैं, जेल की कोई सचाई?

4 comments:

M VERMA said...

शायद सच है 'वहाँ बन्द ज्यादातर अपराधी नही हैं'

अनिल कान्त said...

पता नहीं सेंसर सच को भी अपनी कैंची से काटने से बाज क्यों नहीं आता

शरद कोकास said...

ओह तो नकली सीन भी सेंसर होते है ।

प्रेम said...

दरअसल, बात यह है कि सेंसर बोर्ड को सच सुनने की आदत नहीं है और ना ही सच दिखाने की। उससे उम्मीद ही आप क्या कर सकते हैं।