Wednesday 3 June, 2009

आखिरी आदमी का गीतासार

देखा तुमने!
हवा कैसे हमें बिना छुए बढ़ गई !
पसीने में भीगे बदन की गंध
अब उसे पसंद नहीं।
सड़क भी दौड़ पड़ी
हमारे नंगे पांवों तले से निकलकर
रबर के टायरों और
नर्म ब्रैंडेड जूतों की चाह में।
हमारे मुफ्त के आराम के डर से
पेड़ों ने छिपा ली है छांव,
महंगे रेजॉर्ट्स में
रोमैंटिक जोड़ों को बेचने के लिए।
फसल भी अब उगने के लिए चाहती है
बड़ी-बड़ी मशीनों और खाद की,
खरीदी गईं इल्तिजाएं।
ठीक है कि जाता रहा
इन सबके साथ मिलकर
जिंदगी पर कुढ़ने का मज़ा।
पर अब आएगा
जिंदगी से लड़ने का मज़ा।
क्योंकि अब
अपना यहां कुछ नहीं।
क्योंकि अब
अपना यहां कोई नहीं।

5 comments:

अजय कुमार झा said...

kammal kaa hai ...ye geeta saar to....badhiya rachna....

Asha Joglekar said...

वाह वाह गीतासार तो बहुत काम का है, अब आयेगा मजां लडने में क्यूंकि यहाँ अपना कुछ भी नही है, कोई नही है ।

निर्मला कपिला said...

लाजवाब एक अलग सी अभिव्यक्ति बधाइ

pranava priyadarshee said...

bahut badhiya vivek. jo thoda sa insaan bachaa hai na... uskaa kulnulaana bhee kam nahi hai. yah baat tumhaare lekhan se sabit ho rahi hai... lagataar...
badhaayee

Ashok Kumar pandey said...

अच्छी कविता है भाई