देखा तुमने!
हवा कैसे हमें बिना छुए बढ़ गई !
पसीने में भीगे बदन की गंध
अब उसे पसंद नहीं।
सड़क भी दौड़ पड़ी
हमारे नंगे पांवों तले से निकलकर
रबर के टायरों और
नर्म ब्रैंडेड जूतों की चाह में।
हमारे मुफ्त के आराम के डर से
पेड़ों ने छिपा ली है छांव,
महंगे रेजॉर्ट्स में
रोमैंटिक जोड़ों को बेचने के लिए।
फसल भी अब उगने के लिए चाहती है
बड़ी-बड़ी मशीनों और खाद की,
खरीदी गईं इल्तिजाएं।
ठीक है कि जाता रहा
इन सबके साथ मिलकर
जिंदगी पर कुढ़ने का मज़ा।
पर अब आएगा
जिंदगी से लड़ने का मज़ा।
क्योंकि अब
अपना यहां कुछ नहीं।
क्योंकि अब
अपना यहां कोई नहीं।
Wednesday, 3 June 2009
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5 comments:
kammal kaa hai ...ye geeta saar to....badhiya rachna....
वाह वाह गीतासार तो बहुत काम का है, अब आयेगा मजां लडने में क्यूंकि यहाँ अपना कुछ भी नही है, कोई नही है ।
लाजवाब एक अलग सी अभिव्यक्ति बधाइ
bahut badhiya vivek. jo thoda sa insaan bachaa hai na... uskaa kulnulaana bhee kam nahi hai. yah baat tumhaare lekhan se sabit ho rahi hai... lagataar...
badhaayee
अच्छी कविता है भाई
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