Saturday, 7 February 2009

बहुत शुक्रिया शनिदेव...

सुना आपने...

आज शनिवार है...सुबह होते ही हजारों बच्चे सड़कों पर निकल पड़े...हाथ में लटकते बर्तन...बर्तन में तेल...और तेल में डूबे लोहे के पतरे...इस लोहे के पतरे को लोग शनिदेव कहते हैं...पूजते हैं...ट्रैफिक लाइट्स और जहां-तहां उग आए शनि मंदिरों के सामने इन बच्चों की भीड़...हर गाड़ी के पास जाएंगे...शीशा उतरेगा...एक, दो, कभी-कभी पांच रुपये का सिक्का...टन्न...कुछ लोग उस तेल में मुंह भी देखना चाहते हैं...

मुझे नहीं पता कैसे इन बच्चों के दिमाग में यह बात आई होगी...कैसे इन्हें पता चला होगा कि ये बड़ी-बड़ी गाड़ियों वाले...इस लोहे के पतरे से डरते हैं...यूं किसी के मांगने पर कुछ दें न दें...पर उस पतरे के नाम पर जरूर देते हैं...पिछले कुछ सालों में शनि मंदिरों की तादाद कितनी बढ़ गई है...और मंदिरों के सामने शनिवार को लगने वाली भीड़ भी...भीड़ के साथ ही बढ़े हैं ये बच्चे...कई बच्चे क्रिएटिव होते हैं...बर्तन को सजाकर लाते हैं...लाल कपड़ा...घोटे वाला...उस बर्तन में सिक्के ज्यादा डलते होंगे शायद...शनिवार को इन्हें फटे-पुराने कपड़े भी नहीं पहनने पड़ते...बेचारा भी नहीं दिखना पड़ता...जिन्हें भिखारियों से दिक्कत है...और जिन्हें भीख मांगते बच्चों पर तरस आता है...उन्हें भी इनसे समस्या नहीं है...एक-दो रुपये देकर बलाएं टलती हैं, तो हर्ज क्या है...इन बच्चों को लेकर हमारी चिंता कितनी है? बस गाड़ी का शीशा उतारते वक्त एक दूं या दो के गणित जितनी? भला हो शनिदेव का...इन बच्चों को संभाले है...भिखारी बनाए बिना...शुक्रिया शनिदेव...

8 comments:

निर्मला कपिला said...

sach kaha aapne kisi ko in se smasya nahi balki unhen to khushi hai ki mandir nahi jana padega chalte 2 hi shani dev ko parsan kar lenge bhala ho shani dev ka jinhon ne inhen naukari de rakhi hai varna aaj kis admi ya sarkaar ko inki chinta hai

संगीता पुरी said...

जबतक लोग अंधविश्‍वासी बनें रहेंगे.....उनका कटोरा तो भरता ही रहेगा......और वे वैसा करते ही रहेंगे।

Arvind Mishra said...

भाई आप वही विवेक हो ना ? बड़ी जर्रा नवाजी है लौट के हजूर तो आए !

विवेक said...

अरे नहीं अरविंद जी, मैं वो विवेक नहीं। वह तो 'स्वप्नलोक' में 'रहते' हैं। उनकी तो कोई खबर नहीं।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

अंधविश्वास को दर्शाती एक अच्छी पोस्ट.........

दिगम्बर नासवा said...

अच्छी पोस्ट.........
यथार्थ लिखा है, व्यंग है हमारे समाज पर, आने वाली पीड़ी की बारे में कुछ सोचना चाहिए समाज को

Rahul kundra said...

शुक्रिया, शुक्रिया, शुक्रिया बहुत बहुत शुक्रिया
" हीरा धूल में " आपको पसंद आया इसलिए बहुत शुक्रिया

Pooja Prasad said...

आपने बात जो उठाई उससे इतर कहने जा रही हूं पर जो लगा कह रही हूं। एक दो रुपए देकर बलाएं टलती हों तो बुरा क्या है..हां मेरे अगल बगल बस में लोग जब एक दो रुपया दे रहे होते हैं तो सोचती हूं, शनिदेव को इन चवन्नियों अठन्नियों में अपने मन की करवा लेने की इज्छा कितनी भोली है! खूब खूब परेशान लोग इन दिनों शनिदेव को मनाने की खूब जुगत लगाते हैं। मेरे फादर बताते हैं, जय संतोषी मां (नाम में गलती हो तो माफ करें) फिल्म आने के बाद अचानक मां संबंधी कर्मकांड खूब बढ़ गए थे। इन दिनों मां के जयकारे पर देखती हूं कि शनिदेव का डर हावी हो गया है। सुना है शनिदेव कर्मों का हिसाब किताब रखने वाले काल के सिपहसालार टाइप हैं। शायद कुछ सालों बाद शनि की जगह कोई और देवता का आतंक या प्रेम आ जाएगा।

जो भी हो शनिदेव का इस मायने में शुर्किया कि उनके नाम पर बच्चों को पैसे मिल जाते हैं। (फिर वे इस पैसे से खाएं या चरस में उड़ाएं)