बीजेपी जसवंत सिंह को निकाले या गले में डाले, मेरी बला से। उनकी पार्टी में लोकशाही है या भौंकशाही, यह भी वे आपस में ही समझें। पार्टी आरएसएस की तान पर नाचती है या आरएसएस पार्टी को जांचती है, मुझे कोई मतलब नहीं। मैं किताब पर बैन सहन नहीं कर सकता।
बीजेपी के भीतर किताब पर जो भी हल्ला मचे, आप आम आदमी को किताब पढ़ने से कैसे रोक सकते हैं? पार्टी को किताब पसंद नहीं आई या उसका लिखनेवाला, यह उनकी अपनी समस्या है। वे तय करने वाले कौन होते हैं कि मैं क्या पढ़ूंगा और क्या नहीं?
जसवंत सिंह ने जो लिखा है, उस पर बीजेपी को आपत्ति है, एक राज्य की जनता को नहीं। और अगर आपत्ति है भी, तो जनता खुद तय करेगी कि किताब पढ़नी है या कूड़े में फेंकनी है। कोई मुख्यमंत्री सिर्फ इसलिए ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि किताब में जो लिखा गया है, वह उसकी पार्टी की विचारधारा के खिलाफ है।
जसवंत सिंह को निकालना तानाशाही हो या न हो, किताब पर बैन लगाना तानाशाही है। राज्य की जनता आपकी पार्टी की मेंबर नहीं है, जिसके लिए आप विप जारी करेंगे कि क्या लिखे और क्या पढ़े।
नरेंद्र मोदी के इस कदम का सख्त विरोध होना चाहिए। मैं इसका विरोध करता हूं।
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5 comments:
मै भी आपके बातो से सहमत हूँ......
बिलकुल सच कहा विवेक भाई आपने, आपकी बात को दारुल उलूम देवबन्द और दिल्ली के शाही इमाम तक पहुँचाता हूं कि विवेक भाई सलमान रुश्दी की पुस्तक "सैटेनिक वर्सेस" और तस्लीमा नसरीन की पुस्तक "लज्जा" की भी कुछ प्रतियाँ चाहते हैं… :)
सुरेश भाई ने भले ही यह बात व्यंग्य में कही हो, पर मैं पूरी गंभीरता से उनकी इस बात का समर्थन करता हूं कि किसी भी पुस्तक या कलाकृति पर बैन नहीं होना चाहिए चाहे वह सेटनिक वर्सेज हो या लज्जा या जसवंतजी की पुस्तक या फिर हुसैन की पेंटिंग।
दरअसल जब भी ऐसा कोई मुद्दा सामने आता है कुछ लोग हमेशा 'दूसरे पक्ष' का जिक्र छेड़ते हुए यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वह ज्यादा कट्टर है जबकि ये खुद को ज्यादा सहनशील हैं। इससे बहस का स्वरूप ही बदल जाता है। बहस बैन पर होनी चाहिए, लकोतांत्रिक अधिकारों के हनन पर होनी चाहिए लेकिन बहस एक कट्टरपंथी समूह बनाम दूसरे कट्टरपंथी समूह की हो जाती है।
सही बात. किताब पर रोक का क्या काम. वरना अभिव्यक्ति की आजादी का क्या मतलब रह जाता है. वैसे विवेक जी आपका ब्लाग तो बड़े काम का निकला.
विरोधियों की जमात में मुझे भी शामिल करिए।
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