Tuesday, 27 January 2009

प्रेजिडंट पाटिल आप महान कैसे हैं...

सुना आपने....राजपथ पर पहली महिला प्रेजिडंट की सलामी ने इतिहास रच दिया...कितना आसान है इतिहास रचना...


दिल्ली के राजपथ पर
उस बड़ी सी तोप का मुंह
जब एक महिला प्रेज़िडंट की ओर झुका
तो वक्त रुका
और इतिहास तुरंत ले आया
अपनी पोथी
एक और नाम दर्ज करने के लिए।

कितना आसान है
एक महिला का नाम
इतिहास में दर्ज करना,
हर काम जिसे महान करार दिया गया है
औरत पहली बार ही तो करती है।
क्योंकि रोटी को हर बार गोल बना देना
कोई महान काम नहीं है
रोज सुबह
परिवार में सबसे पहले जगकर
नहाना, धोना, सफाई, बर्तन करने के बाद
सबके लिए नाश्ता बना देना
कोई महान काम नहीं है

बड़ी-बड़ी मशीनें चलाना
और चांद पर हो आना
महान काम हो सकता है
लेकिन
सबके कपड़े धोना, आयरन करना
बच्चों को स्कूल से लाना
सबकी पसंद का खाना बनाना
और सबके नखरे उठाते हुए
सबको अलग-अलग खिलाना
कोई महान काम नहीं है।

मंत्री, प्रधानमंत्री, प्रेज़िडंट बनना
हवाई जहाज उड़ाना
बड़े-बड़े बैंकों को चलाना
औरत को महान बना सकता है,
लेकिन पाई-पाई जोड़कर घर बनाना
महान काम नहीं है।

एक औरत
जब दुनिया की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर
भाषण देती है
नारे लगाती है
मोर्चे चलाती है
तो महान हो जाती है
लेकिन पति की कड़वी से कड़वी बात को
चुपचाप सह जाना
अपनी इच्छाओं को दबा लेना
घर और बच्चों की खातिर
मुस्कुराते हुए
अंदर ही अंदर सुबकते जाना
कोई महान काम नहीं है।

जो लोग ऐश्वर्या को विश्वसुंदरी कहकर पुकारते हैं
वही लोग
जरा सा दुपट्टा खिसक जाने पर
अपनी बेटियों को जब दुत्कारते हैं
तो बताते हैं
कि महानता की परिभाषा
पुरुष अपनी खुशी के लिए रचता है
और इसमें
हर उस औरत को शामिल करने से बचता है
जो उसकी निजी संपत्ति है।

प्रेज़िडंट पाटिल
जब आप
एक औरत की तरह
सिर पर पल्ला लिए
गली-मोहल्लों में सबका दर्द बांटती
घूमती नजर आती हैं
तब इतिहास आपको पूछता तक नहीं

जब आप पुरुष की तरह
राजपथ पर सलामी उठाती हैं
तो महान हो जाती है?

यहां अच्छी मां,
अच्छी बेटी
अच्छी पत्नी
अच्छी बहन बनना
कोई बड़ी बात नहीं है,
जब किसी वजह से
औरत सिर्फ औरत रह जाती है
तो बड़ी नहीं कहलाती है
हां, वही औरत
अगर पुरुष बन जाती है
तो महान कहलाती है।
क्योंकि
इस आदिम समाज में
पुरुष बनना महानता की पहचान है
सिर्फ औरत रह जाना
कोई महान काम नहीं है।

Saturday, 24 January 2009

चलती बस में खड़ी लड़कियां

(सुना आपने...आज बालिका दिवस है...क्यों है?)

दिल्ली की चलती बस में खड़ी लड़कियां
बहुत इंटेलिजेंट होती हैं
वे अच्छी तरह समझती हैं
चेहरों की जबान,
आंखों के इशारों को ट्रांसलेट करना
उनके बाएं हाथ का खेल है,
माल, पटाखा और बम जैसे शब्दों के अर्थ
उन्हें अच्छी तरह मालूम हैं,
वे उन शब्दों के अर्थ भी जानती हैं
जो वे कभी नहीं बोलतीं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते जैसी बातों को
वे बकवास कहती हैं,
बस के अचानक ब्रेक लगने का दर्द
वे सीटों पर बैठे उन लोगों से भी बेहतर जानती हैं
जिनके सिर सामने की रॉड से टकराते हैं।

दिल्ली की चलती बस में खड़ी लड़कियां
मूर्ख नहीं होतीं
चुप होती हैं।
वे जानती हैं
बोलना कभी-कभी काफी महंगा पड़ जाता है,
वे जानती हैं कि इधर-उधर फिसलते हाथों में
तेजाब भी हो सकता है।
वे जानती हैं
3 रुपये की टिकट की असली कीमत,
वे जानती हैं
बस में सफर करते हर आदमी की औकात,
इसलिए
वे बस से उतरते ही खिलखिला देती हैं।

दिल्ली की चलती बस में खड़े
लड़के कैसे होते हैं?

Thursday, 22 January 2009

अस्पतालः उदासियों की भीड़ और उम्मीदों का मजमा

सुना आपने

अस्पताल में था...तीन दिन और दो रात का स्टे...फ्री नहीं था...सीजनल डिस्काउंट भी नहीं था...मेडिक्लेम वालों के पास भी सौ बहाने हैं पैसे न देने के...22-23 इजेक्शंस, 12-15 टेबलेट्स, दो उनींदी रातें और कई हजार देकर किसी तरह पीछा छूटा...डॉक्टर तो आने ही नहीं दे रहा था...बचपन में मामा के घर बिताए दिन याद आ गए...वे भी आने नहीं देते थे...इसी तरह इसरार करते थे...दो दिन और रह जाओ...अभी तो छुट्टियां बाकी हैं...प्लीज, अब जाने दीजिए...होम वर्क भी तो करना है...

घर आया...दर्द ज्यों को त्यों था...बिस्तर पर लेटते हुए आह निकली तो अस्पताल याद आ गया...अजीब जगह है...उदासियों की भीड़ और उम्मीदों का मजमा...मंदिर की तरह...मस्जिद की तरह...गुरुद्वारे और और चर्च को भी गिन लीजिए...नहीं तो कहेंगे तकलीफ में सांप्रदायिक हो गया हूं...इन जगहों से अस्पताल थोड़ा बेहतर है...डॉक्टर साहब भगवान हो जाते हैं...भगवान डॉक्टर नहीं हो पाता...डॉक्टर न करे तो गला पक़ड़ सकते हैं...भगवान न करे तो...न करे...डॉक्टर जितने मांगेगा, देने पड़ेंगे...भगवान मांगता नहीं फिर भी खूब मिल जाते हैं...आदमी और पत्थर में कुछ तो फर्क हो..

अस्पताल में उम्मीदें ज्यादा होती हैं...या उम्मीद करने का अधिकार ज्यादा होता है...हां, गारंटी कहीं नहीं है...देर और अंधेर की तसल्ली दोनों जगह है...डॉक्टर अंधेरे में रखे रहते हैं और देर किए जाते हैं...भगवान का मुझे कोई एक्सपीरिएंस नहीं है...उस बच्चे को भी नहीं होगा...प्रभजोत...दो साल का है...बहुत प्यारा है...दोनों फिजियोथेरेपी के लिए जाते तो मुलाकात हो जाती...छत से गिरा था...डर की वजह से झुक गया...वहां सब कहते हैं...इस मासूम के साथ इतना अन्याय...सब भगवान की माया है...सबको भगवान का एक्सपीरिएंस है...अब डॉक्टर की माया देखनी है...मां रोज उसे लाती है...उदास है...दिखाती नहीं है...बस उम्मीदें चमकती रहती हैं आंखों में...बच्चे को तो दोनों का ही नहीं पता...लेकिन उसे ‘डॉतर अंकल’ पसंद हैं...

लेकिन उस महिला को पता है...वही जो सामने वाली दीवार के साथ लगी खूंटी पर गर्दन लटकाए बैठी रहती है...मजाक नहीं सच...गर्दन दुखने लगी है...सिलाई का काम करती है...घर पर ही...पतली सी है...गरीब दिखती है...बताइए, देखने से ही गरीब और अमीर का पता चल जाता है...सब ब्रैंड्स की माया है...बोलने की आदत काफी है, इसलिए नर्सों को सब बता दिया...मुझे भी सुनने की आदत है...सब सुन लिया...10-15 साल हो गए...लगातार सिलाई कर रही है...झुकी रहती होगी...गर्दन भी झुक गई है...अब दुखती है...फिजियोथेरेपिस्ट उसकी गर्दन को कॉलर में लपेटते हैं और खूंटी से लटका देते हैं...मकैनिकल खूंटी है...ऊपर की ओर खींचती है...वह भी ऊपर खिंच जाती है...सब हंस पड़ते हैं...वह झेंप जाती है...मेरा वजन कम है ना...उम्मीदें हंस देती है...मुझे जल्दी ठीक कर दीजिए...काम का बहुत हर्जा होता है...अभी तुम्हें काम नहीं करना है...काम नहीं करूंगी तो कैसे चलेगा...अब उदासी हंस देती है...

Saturday, 10 January 2009

कोई मेरे मोहल्ले को बचा लो, प्लीज...

सुना आपने

सत्यम ढह गई...मुझे उसकी फिक्र तो है...लेकिन...

इस बार घर गया...तो डर गया...मेरा मोहल्ला बर्बादी के कगार पर है...मेरे छोटे से शहर का बड़ा सा मोहल्ला...सबसे अमीर मोहल्ला...तीन-साढ़े तीन सौ घर...कहते हैं इस मोहल्ले के घर शहर में सबसे अच्छे हैं...अब तो वहां कुछ बड़े-बड़े बिल्डर अपार्टमेंट्स बना रहे हैं, लेकिन कभी यह मोहल्ला सबसे अच्छा हुआ करता था...शायद इसीलिए इसका नाम मॉडल टाउन रखा गया होगा...मॉडल टाउन मुझे पसंद है...मेरा घर है वहां...मेरा बचपन है...बचपन के दोस्त हैं...गिल्ली-डंडे हैं...छोटे-बड़े झगड़े हैं...वे घर हैं, जिनकी दीवारों पर चढ़कर मैं अमरूद चुराया करता था...उन घरों में रहने वाले लोग हैं...हैं नहीं थे...एक घर के सामने से गुजरा...घर में अमरूद का पेड़ तो है...लोग नहीं हैं...घर के बाहर ताला लगा है...ताले पर एक सील है...सुना है एक प्राइवेट बैंक ने ताला लगा दिया है...लोन नहीं चुकाया गया...लोन??? ये घर तो होम लोन पर नहीं बने हैं...ये तो पुराने हैं...होम लोन नामक बीमारी से भी पुराने...फिर?...फिर भी घर पर कर्ज है...

सुना है सालभर पहले यहां लोन नाम की बीमारी आई थी...साथ में बहुत सारा पैसा लाई थी...घर के कागज दो, पैसा लो...लोगों ने घर दे दिए...पैसे ले लिए...बीमारी भी ले ली...बीमारी फैलती गई...घर घटते गए...सुना है 90 फीसदी घरों के कागज बैंकों में पहुंच गए...धीरे-धीरे पैसा घटने लगा...पैसे से कार आई...बीमारी और बढ़ी...बाइक्स आई...बीमारी और बढ़ी...ब्रैंडेड कपड़े आए...मुझे अक्सर हैरत होती थी कि ये बड़े-बड़े ब्रैंड्स मेरे छोटे से शहर में शोरूम क्यों खोल रहे हैं...सोचता था मनमोहन सिंह जी का असर है...चिदंबरम की तरक्की छोटी-छोटी जगहों तक पहुंच रही है...यहां तो सत्यम जैसा महल ही रेत से बना था...

सुना है लोन की दर हर महीने बढ़ती है...इनकम तो नहीं बढ़ती...कैसे चुकाएंगे लोन...मेरे मोहल्ले में महल तो नहीं, घर हैं बस...उनकी जड़ों में भी रेत भर दिया है, इस सत्यम रूपी तरक्की ने...अब शोरूम तो हैं, घर नहीं हैं...बच्चों के पास बाइक्स तो हैं...घर नहीं हैं...मोहल्ले में कारें तो बढ़ गई हैं...घर कम हो गए हैं...सुना है चार घरों में ताले लग चुके हैं...किस घर में कब ताला लग जाए कोई नहीं जानता...कोई मेरे मोहल्ले को बचा लो...कोई राहत पैकिज दे दो...प्लीज...

Monday, 5 January 2009

साथियों के कटते हाथ देखकर...

सुना आपने

स्पेशल ईकॉनॉमिक ज़ोन (सेज़) के नौ नए प्रस्ताव आए हैं। वाह भई वाह...क्या मंदी है...लोगों की नौकरियां जा रही हैं...पर सेज के लिए सब ठीक है....असल में कसूर हमारा ही है....

अब तक
तुम चुप रहे
और तुमने देखी
इतिहास की दोहराई
आधुनिक टॉमस रो का
श्वेतांबरी जहांगीरों से मिलन।
कुछ दिन ठहरो,
तुम बस कुछ दिन और ठहरो.
धीरे-धीरे
ये टॉमस रो, ले आएंगे
वही पुरानी, हाथ काटती
विदेशी तलवार
तुम तक भी।
और तुम
जो आज चुप हो
अपने साथियों के कटते हाथ देखकर
उस वक्त भी चुप रहना।
तुम, उस वक्त भी चुप रहना
क्योंकि यही टॉमस रो
तुम्हारे ही बाजारों में
तुम्हें बेचेंगे
नकली विदेशी हाथ।।

(सुना है टॉमस रो ईस्ट इंडिया कंपनी का संदेश लेकर जहांगीर के पास आया था १६१५ में)

Thursday, 1 January 2009

कॉमेंट्स तो सब रवीश के यहां चले जाते हैं

सुना आपने

साल के पहले ही दिन मेरा झगड़ा हो गया
मेरे भीतर बैठा ब्लॉगर अड़कर खड़ा हो गया
बोला, क्यों लिखा जाए हर बवाल पर
जाओ मैं नहीं लिखता नए साल पर
मैं हैरान परेशान उसे मनाने लगा
नए साल पर लिखने के फायदे बताने लगा
भाई, आज तो अग्रीगेटर्स पर दिखना होगा
नए साल पर जरूर लिखना होगा
मूर्ख देख...लिखा है इसी पर सबने
बवाल और ब्लॉगरों की तो
जोड़ी बना दी रब ने
कुछ भी हो जाए टूट पड़ना है
हिट्स आएं न आएं
पोस्ट के मामले में नहीं पिछड़ना है

और कॉमेंट्स? उसने आंखें तरेरी
सच कहूं, जबान बंद हो गई मेरी
हम लिखते रहते हैं और हाथ मले जाते हैं
कॉमेंट्स सारे रवीश के यहां चले जाते हैं
गली-मोहल्ले तुम्हें पूछते हैं नहीं
अपने अलावा छपते हो तुम कहीं?
नारी संवेदना के लिए लोग बेटियों के ब्लॉग पढ़ते हैं
और कविता प्रेमियों को गौरव सोलंकी ले उड़ते हैं
हंसी-मजाक में ताऊ जैसे कई उस्ताद हैं
और विचार में तो बड़े-बड़े जिंदाबाद हैं
तुम तो फालतू के उसूली हो
ये पढ़े-लिखों की दुनिया है
तुम किस खेत की मूली हो

मैंने कहा यूं नाम मत ले कम्बख्त, मरवाएगा
तू तो ये ब्लॉग ही बंद करवाएगा
ब्लॉगिंग की दुनिया बहुत खास है
यहां बराबरी का आभास है
जो लिखता है, वो दिखता है
लेकिन सिर्फ अच्छा माल बिकता है
अच्छा लिख, तुझे भी टिप्पणी मिलेगी
लेकिन, चुप रहने से दुकान नहीं चलेगी
अपने भीतर से कुछ अच्छा सा निकाल
नए साल पर सबसे अलग कुछ लिख डाल
एक जनवरी है, नए साल पर सब पढ़ेंगे
दिखेंगे तो हम भी नजरों में चढ़ेंगे

बैठा तो अभी नहीं है, थोड़ा ढीला हो गया है
दिखने के लालच में लाल से पीला हो गया है
जब तक मैं इसे मनाऊं
और हम मिलकर कुछ अच्छा लिख लाएं
आपको ‘सुना आपने’ की ओर से
नए साल की शुभकामनाएं