3 बज रहे हैं
अंधेरा बस समेटने ही वाला है
रातभर की कमाई।
बांध लेगा अपनी पोटली में
घबराहट से टूटे
खिड़कियों पर टंगे सपने।
परदों से झांककर चुराई
मोहब्बत में भीगी चादरें।
उनीदें सीनों पर
औंधी सोई पड़ी किताबें।
रजाई के अंदर जारी
मोबाइल फोन्स की खुसर-फुसर।
दरवाजों के बाहर रखे
किराए पर रहने वाले लड़कों के
देर तक बजे ठहाके।
कॉल सेंटर कैब्स से उतरतीं
खूबसूरत थकानें।
ग्राउंड फ्लोर वाले गुप्ते के
चौकन्ने कुत्ते का खिजाता शोर।
चौकीदार के पतले कंबल में
दुबकी बैठी ठिठुरन।
इतना काफी नहीं है क्या?
मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त !!
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10 comments:
सच में मैं आपकी जितनी भी तारीफ करूँ वो कम ही पड़ जायेगी
उन एहसासों को समेटे हुए है जो यूँ ही बिखरे पड़े हैं
इतना काफी नहीं है क्या?
मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त !!
कितने खूबसूरती से एह्सासो का ताना-बाना बुना है आपने.
बहुत खूब
वाह.....हजूरे वाला .....खास तौर से केब्स से उतरती खूबसूरत थकाने
वाह क्या बात है ?
नीन्द कमब्खत होती ही ऐसी है ......
मेरी नींद तो लौटाता जा, कमबख़्त...
यह पंक्ति ही अपने आप में पूरी कविता है...
कमबख्त है तभी तो नींद लेकर भाग गया। कमबख्त न होता तो नींद साथ ले कर बैठा रहता। फिर कोई कमबख्त नींद लौटाने आएगा, ये तो कभी होगा ही नहीं। कमबख्तों की यह फितरत नहीं भई विवेक। :)
बहुत बढिया। मजा आ गया पढकर।
( Treasurer-S. T. )
Kya Majboori jahir ki hai! badhai!
khubsurat
khubsurat
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