हे गांधी बाबा
मैं तुम्हें बहुत मानता हूं। फिर भी, जब मायावती ने तुम्हें नाटकबाज़ कहा, तो मुझे ज्यादा दुख नहीं हुआ। हो सकता है नाटकबाज एक कड़वा शब्द हो, लेकिन यह कड़वाहट इसके अर्थ की गंभीरता को कम नहीं कर सकती।
ऐसा नहीं कि तुमने जो कुछ भी किया, वह एक नाटक था, कि तुम जो कहते थे उसे करना ही नहीं चाहते थे, लेकिन उसके नतीजे सिफर ही होने थे...सिफर ही हुए। क्या तुम्हारा एक भी मकसद पूरा हुआ? तुम जिस ‘राम-राज्य’ का सपना देखते-देखते विदा हुए, क्या एक पल के लिए भी यह राज्य उस ओर बढ़ पाया?
जवाब है नहीं...और अगर इसके लिए तुम्हें जिम्मेदार ठहराया जाए, तो गलत भी क्या है। भारत के इतिहास में एक तुम्हीं हुए, जिसकी एक आवाज पर पूरा देश कुछ भी कर गुजरने को तैयार था। लेकिन तुमने उन लोगों को राम के हाथों सौंप दिया। तुम जो भी करते, उसका श्रेय राम को दे देते...उस राम को, जिसके नाम पर हजारों साल से इस देश में हर 'गलत' काम को जायज ठहराया जाता रहा। राम से प्रेरणा पाते हिंदू धर्म के जिस आधार में खामियों की वजह से एक भेदभावपूर्ण, अन्यायी रस्म-ओ-रिवाजों और भौंडी परंपराओं से भरा समाज तैयार हुआ था, उसी राम की प्रेरणा और हिंदू धर्म के आधार पर तुम कैसे स्वस्थ और समतामूलक समाज तैयार कर सकते थे?
और यह बात तो राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों ने उसी वक्त तुम्हें समझा दी थी। मुझे नहीं पता, तुम जैसे महान दार्शनिक ने इसे कैसे समझा होगा, लेकिन तुमने जो किया, उसके नतीजे देखकर मुझे यह कहने का हक है कि तुमने जो आधार चुना, उसी में खामियां थीं। हजारों साल से पीड़ित ‘नीची जातियों’ को तुमने हरिजन कहकर ऊंचा उठाने की कोशिश की, लेकिन उसी हरि के नाम पर तो उन्हें ‘नीचा’ माना गया था। वे लोग जो खुद को गर्व से हिंदू कहते हुए और राम को मानते हुए भी इन ‘नीची जातियों’ को और नीचे धकेलते आ रहे थे, उन्हें तुमने न हिंदू धर्म को मानने से रोका, न राम को मानने से। उनके भेदभावपूर्ण विश्वास के आधार में ही कोई बदलाव नहीं हुआ, फिर सिर्फ नाम बदल देने से उस विश्वास के आधार पर तैयार मान्यताएं कैसे बदल सकती थीं?
हे गांधी बाबा, तुमने आत्मबल को नहीं, रामबल को ही मजबूत किया।
मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि तुम्हें समाज की नब्ज का साफ-साफ पता था। तुमने उस नब्ज को पकड़ा भी सही। इस आधार पर तुमने लोगों को एक रास्ते पर चलने के लिए तैयार भी कर लिया। लेकिन मंजिल का पता तुमने नहीं बदला। उस मंजिल की ओर तो वे पहले ही बढ़ रहे थे, बस उनके रास्ते अलग-अलग थे। तुम्हारे अंदर इतनी समझ और ताकत थी कि उन्हें एक रास्ते पर जमा कर सको, तो तुम्हें उन्हें सही मंजिल की ओर भी मोड़ देना चाहिए था। इतिहास में पहली और शायद आखिरी बार ऐसा हुआ था कि हजारों साल से अलग-अलग रास्तों पर चलता पूरा देश एक जगह आ खड़ा हुआ था, एक साथ चलने को तैयार था और उनका नेतृत्व तुम्हारे हाथ में था। तुम चाहते तो उन्हें कहीं भी ले जा सकते थे। तुम चाहते तो उन्हें इन्सानियत के आधार पर आगे बढ़ने को कहते, राम के आधार पर नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुमने तो उन्हें लड़ने से भी रोका तो राम की दुहाई देकर। उसी राम की दुहाई, जिसके नाम पर वे आमने-सामने आ खड़े हुए थे। कुछ इसलिए, क्योंकि वे राम को मानते थे और कुछ इसलिए कि वे राम को नहीं मानते थे। तुमने क्यों उन्हें नहीं समझाया कि राम से भी बड़ा है इन्सान? तुमने क्यों उन्हें नहीं बताया कि इन्सानियत सबका साझा आधार है और यही एक मात्र आधार हैं जहां कोई किसी से जुदा नहीं है?
तुम तो मरते-मरते भी उन्हें राम के हवाले कर गए। आखिरी वक्त में क्यों तुमने नहीं कहा कि हम सब इन्सान बनकर इस दुनिया, इस देश को संभालें।
देखो, तुम्हारे राम ने क्या कर डाला है। अब सब बंट चुके हैं। इस देश में हिंदू रहते हैं, मुसलमान बसते हैं, दलित हैं, व्यापारी हैं, कर्मचारी हैं, सरकारी हैं, प्राइवेट हैं...नहीं हैं तो बस इन्सान। तुम्हारे मुंह से निकला राम सबने लपक लिया है। सबका अपना-अपना राम है। सब अपने-अपने राम के लिए लड़ते हैं। कोई उस ‘राम’ को मंदिर में बिठाना चाहता है, कोई उस ‘राम’ को पावर बनाना चाहता है। अब तुम खुद भी तो ‘राम’ ही बन गए हो।
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8 comments:
चलिए थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं की राम राग अनुचित है मगर जो काम गांधी किन्ही भी कारणों से नहीं कर सके उसे करने आप दो डग आगे बढाएगें ?
राम और गीता न होती तो गाँधी भी नहीं होते.
यह परिलक्षित हो रहा है कि वर्तमान सांप्रदायिक सौहाद्रता का आभाव आपको दुखी कर रहा है,परन्तु आलेख में आपका आशय पूर्णतः स्पष्ट न हो पाया है....
क्या आपको इससे आपत्ति है कि उस परमपिता, सर्वशक्तिमान ईश्वर को गांधी जी ने राम क्यों कहा था ????
वाकई, जो गांधी होना चाहता है उसे राम, रहीम, यीशू और तलवारों से दूर ही रहना चाहिये। राम और गीता के बगैर गांधी और नये अवतार भी हो सकते हैं पर गीता और राम को जिन्दा रखने वाला न हो तो... इन शब्द चिन्हों के अस्तित्व को ही संकट पैदा हो जायेगा।
अच्छा आलेख...
गांधी नाम के पर्दे के पीछे झांकने की उम्दा कोशिश...
गांधी जी के जन्मदिन पर उन्हें अच्छा तोहफा!
लेकिन, विवेक अधिकांश बिंदुओं पर तार्किक राय रखने के बावजूद ऐसा लगता है कई जगहों पर आलोचना गांधी जी के तौर तरीकों और उनके विजन की नहीं हो रही है, 'राम' की हो रही है। राम की आलोचना करने की बजाए यदि आपने गांधी जी की उन कमजोरियों और गलत विश्वासों की ओर ही ध्यान इंगित किया होता तो ज्यादा बेहतर होता..नहीं क्या?
दूसरी बात, गांधी ने संभवत: यह समझने में भूल की कि जो लोग धर्म और राम के नाम पर ही लोगों को नीचा (नीची जाति में) दिखाते बनाते आए हैं, वे इन 'नीचों'को हरिजन का नया नामकरण कर भर देने से समान नहीं मानने लगेंगे। इन कथित जातिवादी लोगों की राय में तो -हां, हरिजन तो हैं ही नीची जाति के लोग, क्योंकि हरि ने उन्हें पैदा किया है नीचली जाति में, पर हैं तो वे नीची जाति के ही लोग ना..।
तीसरी बात, इंसानियत- मानवता- मनुष्य कर्म के आधार पर आगे चलने के लिए कहा होता तो बेहतर होता लेकिन राम के नाम पर भी तो वे लोगों को
इसी इंसानियत- मानवता- मनुष्य कर्म की ओर ले जा रहे थे। किसी युधिष्ठर की तरह स्वर्ग की आकांक्षा को नहीं पलवा रहे थे। ...
Gandhiji sampardayik sauhard kayam karne main sarthak paryatn karte huye nazar aatehain par safal nahin ho paye. yahi hai vivek tumhre dil main peerra.parantu Gandhiji ki Sabse bari asafalta hai ki wo is dhawj ko thamne wala koi sahi utradhikari nahin de paaye> SURAJ KAITHAL
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