Sunday, 30 November 2008

जीत गए आतंक पर जंग...अब शर्म से डूब मरो

सुना आपने...

हम जंग जीत गए...आतंक पर हम बड़ी जंग जीत गए...

नरीमन हाउस को आतंकवादियों से खाली करवा लिया गया है॥यह घोषणा सुनते ही वहां मौजूद लोगों ने जय-जयकार शुरू कर दी। मुझे यकीन है टीवी के आगे बंधे बैठे पूरे मुल्क के बहुत सारे लोग उस जय-जयकार में शामिल थे। मैं नहीं था। चाहते हुए भी नहीं...बल्कि मुझे तो शर्म आ रही थी। मरीन हाउस के 'गौरवपूर्ण' दृश्यों को दिखाते टीवी एंकर बोल रहे थे – यह गर्व की बात है, हमारे बहादुर जवानों ने आतंक पर एक जंग जीत ली है, नरीमन हाउस पर कब्जा हो गया है। नीचे न्यूज फ्लैश चल रहा था – नरीमन हाउस में आतंकियों का सफाया...दो आतंकी मारे गए...पांच बंधकों के भी शव मिले...एक एनएसजी कमांडो शहीद।

किस बात पर गर्व करें? पांच मासूम जानें और एक बेशकीमती सैनिक खो देने के बाद दो आतंकवादियों के सफाए पर? 10-20-50 लोग मनचाहे हथियार और गोलाबारूद लेकर आपके देश में घुसते हैं। जहां चाहे बम फोड़ देते हैं। खुलेआम सड़कों पर फायरिंग करते हैं। आपकी बेहद आलीशान और सुरक्षित इमारतों पर कब्जा कर लेते हैं। आपकी पुलिस के सबसे बड़े ओहदों पर बैठे अफसरों को मार गिराते हैं। सैकड़ों लोगों को कत्ल कर देते हैं। आपके मेहमानों को बंधक बना लेते हैं। आपकी खेल प्रतियोगिताओं को बंद करवा देते हैं। आपके प्रधानमंत्री और बड़े-बड़े नेताओं की घिग्घी बांध देते हैं। तीन दिन तक आपके सबसे कुशल सैकड़ों सैनिकों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलते हैं और 'अपनी मर्जी से' मारे जाते हैं...इसे आप जीत कहेंगे? क्या यह गर्व करने लायक बात है?

आपको क्या लगता है, देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला करनेवाले आतंकवादियों को मारकर आतंक के खिलाफ यह जंग हमने जीत ली है? देशभक्ति अपनी जगह है, लेकिन सच यह है कि हम इस जंग में बुरी तरह हार गए हैं। उन लोगों ने जो चाहा किया, जिसे चाहा मारा, जिस हद तक खींच सके खींचा। आपको क्या लगता है, बंधकों को सेना ने बचाया है? जब वे होटलों में घुसे तो हजारों लोग उनके निशाने पर थे। वे चाहते तो सबको मार सकते थे। उनके पास इतना गोला-बारूद था कि ताज और ओबरॉय होटेलों का नाम-ओ-निशान तक नहीं बचता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने इंतजार किया कि पूरी दुनिया का मीडिया उनके आगे घुटने टेक कर और जमीन पर लेटकर यह दिखाने को मजबूर हो जाए कि वे क्या कर सकते हैं। उनकी चलाई एक-एक गोली पर रिपोर्टर्स चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे – देखिए एक गोली और चली। इसे आप जीत कहेंगे?

यह देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला था...1993 के बम ब्लास्ट के बाद भी यही कहा गया था। जब वे हमारा जहाज कंधार उड़ा ले गए थे, तब भी यही कहा था। संसद पर हमला हुआ तब भी यह शब्द थे। अहमदाबाद को उड़ाया था, तब भी सब यही सोच रहे थे। दिल्ली, जयपुर, मुंबई लोकल...हर बार उनका हमला बड़ा होता गया...क्या लगता है अब इससे बड़ा हमला नहीं हो सकता? बड़े आराम से होगा और हम तब भी यही कह रहे होंगे।

क्या इसका इलाज अफजल की फांसी में है? क्या इसका इलाज पाकिस्तान पर हमले में है? क्या इसका इलाज पोटा में है? आतंकियों ने अपने ई-मेल में लिखा था कि वे महाराष्ट्र एटीएस के मुसलमानों पर जुल्म का बदला ले रहे हैं। वे गुजरात का बदला ले रहे हैं। वे आजमगढ़ का बदला ले रहे हैं। वे धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं। भले ही उनकी गोलियों से मुसलमान भी मरे, लेकिन वे मुसलमानों के नाम पर लड़ रहे हैं। यूपी के किसी छोटे से शहर के कॉलेज में पढ़ने वाला अंसारी जब देखेगा कि आजमगढ़ से हुई किसी भी गिरफ्तारी को सही ठहरा देने वाले लोग कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे से चल रही पूछताछ पर ही सवाल उठा देते हैं, तो क्या वह धर्म के नाम पर हो रही इस लड़ाई से प्रभावित नहीं होगा? क्या गुजरात को गोधरा की 'प्रतिक्रिया' बताने वाले लोग मुंबई को गुजरात की प्रतिक्रिया मानने से इनकार कर पाएंगे?

जब वे लोग इस तरह के कत्ल-ए-आम पर उतर आए हैं तो क्या गलत है हिंदू प्रतिक्रिया भी। इसके जवाब में फिर मुस्लिम प्रतिक्रिया होगी। फिर हिंदू...फिर...

(नवभारतटाइम्स.कॉम से साभार)

Sunday, 23 November 2008

क्या आपने सुनी है...रेप की सबसे भयानक खबर?

सुना आपने

फरीदाबाद में दो लड़कों ने अपनी मकान मालकिन को नशीली कोल्ड ड्रिंक पिलाकर बेहोश किया और फिर...फिर आप सब जानते हैं...आप सब समझते हैं। लेकिन यह खबर आपने नहीं सुनी होगी। कहां सुनेंगे ऐसी खबर! न वह मकान मालकिन कोई मॉडल थी...न कोई बड़ी हस्ती...उसका कोई रिश्तेदार भी बड़ा आदमी नहीं था...दोनों किराएदार ही किसी बड़े आदमी के रिश्तेदार होते तो...(किराएदार खुद तो बड़ा आदमी क्या होगा!)...फिर क्यों सुनी जाएगी यह खबर...पर खबर सुपर हिट थी...एक वेबसाइट पर हजारों लोग इसे पढ़ गए...

यानी जिसे खबर मिल गई उसने पढ़ मारी...क्यों...फर्क क्या पड़ता है...रेप की 8-10 खबरें रोज आती हैं...नाबालिग का रेप...दलित का रेप...पड़ोसी ने रेप किया...सिपाही ने रेप किया...रिश्तेदार ने रेप किया...बाप ने रेप किया...हम पढ़ते हैं...सब पढ़ते हैं...फर्क क्या पड़ता है...हर खबर तो पहले पन्ने पर नहीं आती...हर केस जेसिका नहीं हो जाता...हर विक्टिम प्रियदर्शिनी मट्टू नहीं हो जाती...इन 'छोटी-मोटी' विक्टिम्स के लिए कौन झगड़ता फिरेगा...जितनी तेजी से लड़कियां नहीं बढ़ रहीं, उतनी तेजी से ये 'छोटी-मोटी' विक्टिम बढ़ रही हैं...फिर भी खबरें छपती हैं...रोज़ छपती हैं...क्यों? सिनेमा की लोकप्रियता के बारे में कहीं पढ़ा था...लोग पर्दे पर वो देखते जो खुद नहीं कर पाते...इसलिए उन्हें अच्छा लगता है...खुशी मिलती है...फ्रस्ट्रेशन निकलती है...फिल्म हिट हो जाती है...रेप की खबरें भी तो कहीं...

उस दिन सुबह-सुबह ऑफिस पहुंचा ही था कि वाइफ का फोन आ गया...रोज आता है...अ वेन्ज्दे में नसीरुद्दीन ने बड़ा सही कहा था - वाइफ फोन करती है, पूछती है खाना खाया, चाय पी...असल में वह जानना चाहती है कि आप जिंदा हों या नहीं...मेरी वाइफ भी यही सब पूछती है...लेकिन उस दिन उसने नहीं पूछा...हलो, अपनी कॉलनी में रेप हो गया...क्या????? हां, कल रात...सड़क के किनारे खड़ी थी लड़की...किसी ने साइड में धकेल दिया और...कौन थी? पॉकेट ए में रहती है...लेकिन खबर तो कहीं नहीं है...अरे कौन चाहेगा कि उसकी बेटी की खबर छपे...उससे क्या होगा...बात सही थी...कौन चाहेगा...? लेकिन खबरें छपती हैं...हम पढ़ते हैं...सब पढते हैं...क्यों पढ़ते हैं...? मेरी कॉलनी में रेप...मेरे घर के पास रेप...तो सेफ कौन है...? कहीं...कभी...नहीं नहीं...यह मेरे लिए रेप की सबसे भयानक खबर थी...क्या आपने भी सुनी है कभी रेप की भयानक खबर??

Tuesday, 11 November 2008

आज दो घटनाएं घटीं...

सुना आपने

टीवी पर सीरियलों के नए एपिसोड नहीं आ रहे हैं। दो दिन में तीन ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो इस बात से परेशान थे कि सीरीयलों के पुराने एपिसोड दिखाए जा रहे हैं।

आज दो घटनाएं घटीं...

एक
दुकान पर कुछ सामान खरीदने के लिए खड़ा था। मुझसे पहले एक महिला खरीददारी कर रही थी। मैं पीछे था।चेहरा नहीं देख पा रहा था। अपने सामान की बारी का इंतजार करती नजर ज़बर्दस्ती उसके सामान पर चली गई। हेल्दी फूड था। न्यूट्रालाइट बटर। शूगर फ्री। वीट फ्लेक्स। जूस। अब महिला को रस्क चाहिए थे। दुकानदार हेल्दी ब्रैंडेड रस्क ले आया। महिला ने कहा, कोई और भी है? दुकानदार ने एक- दो और अच्छे ब्रैंडेड पैकिट्स दिखा दिए। कुछ देर उलट-पलट के बाद महिला ने कहा अरे कुछ सस्ते वाला दे दो, कैसा भी...हमें कौन सा खुद खाना है, काम वाली बाई के लिए चाहिए...
महिला का चेहरा देखने का मन नहीं हुआ।

दो
रात को खाना खाने के बाद टहलने निकले। हल्की-हल्की ठंड हो गई है। पत्नी को कहा स्वेटर पहन लो। खुद भी एलन सोली की स्वेट शर्ट पहन ली। नौ बज रहे थे। इस वक्त लोग टहलते ही नजर आते हैं। किसी ने पीछे से आवाज लगाई दीदी बॉल ले लो। मुड़कर देखा, छोटा सा बच्चा था। छोटी सी साइकल थी। उस पर खिलौने लटक रहे थे। रंग-बिरंगे। प्लास्टिक की बड़ी-बड़ी बॉल्स थीं। गुब्बारे थे। बंदूके थीं। छोटी-छोटी कारें थीं। इस वक्त ये बच्चा कहां घूम रहा है...सांवला सा...बहुत ही प्यारे नैन-नक्श। सलीके से बनाए हुए बाल। एक ही रंग की पैंट शर्ट, जैसी सफारी सूट की होती है। कद भी छोटा सा। पापा कहां हैं, मैंने पूछा। नहीं हैं। उसकी जबान में कॉन्फिडंस था, बेचारगी नहीं। अच्छा लगा। उससे बात करने का मनने हुआ।

मां कहां है? घर पर है, जल गई है। जल गई है? हां, स्टोव फट गया था। और कौन है? छोटा भाई है। तुम कितने साल के हो? नौ साल का। स्कूल जाते हो? हां, दिन में। और शाम को गुब्बारे बेचते हो? हां। स्कूल का खर्चा कहां से आता है? वो अमरीश गौतम का बेटा है ना...जिसके लिए हम हाथ पर वोट देते हैं...वही देता है...मां की दवाई का खर्च भी। एक गेंद ले लो। कितने की है? बीस रुपये की। अच्छा दे दो। ये लो बीस रुपये। दस रुपये और ले लो। नहीं। क्यों? मां मना करती है।
छोटी सी साइकल लेकर छोटा सा बच्चा आगे बढ़ गया। मेरे हाथ में बड़ा सा दस का नोट झूल रहा था।

सुना आपने, टीवी पर सीरियल्स के नए एपिसोड नहीं आ रहे हैं। मैं सीरियल्स नहीं देखता। कोई बता सकता है इनमें क्या दिखाते है?

Friday, 7 November 2008

जिए तू इस तरह...जिंदगी को तरसे

सुना आपने...

दिल्ली में एक और प्रेमी ने अपनी प्रेमिका पर तेज़ाब फेंक दिया...भई वाह...इसे कहते हैं तरक्की। मोहब्बत में भी हम तरक्की की राह पर हैं। एक पुराना गीत सुनकर मुझे अक्सर बड़ी हैरत होती थी। अब नहीं होती। धर्मेन्द्र एक पार्टी में जब इस गीत को गाते हैं तो सामने खड़ी आशा पारेख की आंखें भर आती हैं और वह पार्टी क्या घर ही छोड़कर चली जाती हैं। इस गीत को सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे...मुझे गम देने वाले तू खुशी को तरसे... कोई कैसे अपनी प्रेमिका को ऐसी बद्दुआ दे सकता है...और उस गीत में धर्मेन्द्र के एक्सप्रेशंस...उफ्फ!!! उनके चेहरे पर उस वक्त कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा वाले भाव कुछ-कुछ आने लगे थे। जिस नफरत से वह आशा पारेख को देखते हैं, उन्होंने शायर के भावों को एकदम सही शक्ल दी है...लेकिन इतनी नफरत !!! उस शख्स के लिए जिसे आप प्यार करते हैं !!! ये तेज़ाबी प्रेमी उस गीत के ही भाव लगते हैं...भाड़ में जाए त्याग, बलिदान...मैंने प्यार किया है तो हासिल भी मेरा है। और मेरा नहीं तो किसी का नहीं...जाने वो कैसे लोग थे जो याद में जिंदगी गुज़ार देने को तैयार रहते थे...मूर्ख थे। या उन्हें मोहब्बत में तेज़ाब का इस्तेमाल ही पता नहीं होगा...अब प्रेमी जान गए हैं। देखिए...इस तेज़ाबी प्यार में तड़प कम नहीं है। जज़्बात अधूरे नहीं है। हर हद से गुज़रने का वही हौसला है, बस दिशा अलग है। ये लोग कम से कम उन जैसे नहीं हैं जो तू नहीं और सही और नहीं और सही को प्यार मानते हैं...तेज़ाबी आशिक जलते तो हैं...उनके लिए इश्क कोई कबूतर नहीं जो रोज़ डाल बदल लेता है...लेकिन जलने वाले जलाने लगे हैं...अपने ही इश्क को...तो क्या तू नहीं और सही ही सही...पता नहीं...भला हो।

Sunday, 2 November 2008

पुलिस की गोली से मरना क्या बड़ी बात है?

सुना आपने...
मुंबई में राहुल राज मारा गया...पुलिस के हाथों...हंगामा हो गया...सरकारें हिल गईं...नेता प्रधानमंत्री से मिलने पहुंच गए...राज्य सरकार के दफ्तरों में सेंटर के फोन घनघनाने लगे...राहुल के घर मीडिया का जमावड़ा लग गया...मंत्री, संतरी सब पहुंच गए....पिता ने कहा बेटा बेकसूर था...बहनें बिलखतीं दिखाई दीं तो सब भावुक हो गए....पुलिस की गोली से मरना क्या इतनी बड़ी बात है...ठीक एक दिन पहले पुलिस की गोली से कोई मरा था...एक कॉलम की खबर थी...किसी ने पढ़ी, किसी ने नहीं...उसके हाथ में बंदूक भी नहीं थी...वह किसी को मारने भी नहीं आया था...वह किसी से बदला भी नहीं चाहता था...सड़क पर विरोध प्रदर्शन किया...पुलिस की गोली चली...मारा गया...कोई नहीं हिला...कोई नहीं मिला...मां-बाप से किसी ने नहीं पूछा...बारामूला और मुंबई में दूरी बहुत है...इरफान और राहुल में फर्क बहुत है...पुलिस की गोली से मरना सबके लिए बड़ी बात नहीं...