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श्रीनगर…शाम का वक्त...नवंबर की हसीन गुदगुदाती सी ठंड...डल लेक का किनारा...बंदूकें...और उन्हें थामे हरी वर्दी में घूमते फौजी...वे आपको लगातार घूरते रहते हैं...आंखें मिली नहीं कि वे आपके दिमाग में घुस जाते हैं...आपके ख्यालों को चीरफाड़ कर रख देते हैं...किसी साजिश की तलाश में...यानी आपके वजूद पर ही नहीं, ख्यालों पर भी संगीनों का पहरा...यूं संगीनों के पहरे में ख्यालों की चीरफाड़ के बीच मोहब्बत जैसे अल्फाज़ डरकर छिपे रहते हैं...
मुझे लगा यही तो हो रहा है कश्मीर के साथ...कश्मीरियत के साथ...वहां कैसे पनपेगी मोहब्बत...देश के लिए...भारत के लिए...उन संगीनों ने तो आपस में प्यार करने लायक भी नहीं छोड़ा है इंसानों को...श्रीनगर की खौफजदा सी गलियों में घूमते हुए टकराए वे नौजवान जाने क्यों अपने से नहीं लगते...उन आंखों में या तो बगावत दिखी या नफरत...मादा आंखों कुछ पनीला सा नजर आया था...ठीक-ठीक मालूम नहीं...मजबूरी थी शायद...इधर या उधर न हो पाने की मजबूरी...वे लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं...लेकिन खुश नहीं हैं...गुस्सा हैं...कुछ भारत से, कुछ पाकिस्तान से और बाकी खुद से...
मैं जिक्र छेड़ने की कोशिश करता हूं, वे टाल देना चाहते हैं...एक गैर के सामने अपने घर की बातें करते शायद झिझक रहे हैं...मैं कुरेदता हूं, वे झिझकते हैं...मैं और कुरेदता हूं...वे फूट पड़ते हैं...क्यों रहें हम भारत के साथ...इसलिए कि हमारे बच्चों का बचपन भी फौजी बूटों की आहट से घबराते और गोलियों की आवाजों से सहमते हुए गुजरे...वे भी बड़े हों तो धमाकों की आवाज और कभी भी कुछ भी हो जाने का डर जिंदगी पर उनके यकीन की जड़ें हिला चुका हो...
लेकिन फौज तो आपके लिए ही है...आपकी सुरक्षा के लिए...मेरा भारतीय दिमाग तर्क करने से बाज नहीं आता...उनके पास जवाब है...हर बात का करारा जवाब...वो लड़की बोल उठती है...फौजें सरहदों पर अच्छी लगती हैं साहब, घरों की देहरियों पर नहीं...आपको कैसा लगेगा जब आप सुबह घर से बाहर निकलें तो आपका सामना दो अनजान लोगों से हो जो लगातार आपके घर के सामने तैनात रहते हैं...किसी और मजहब के...किसी और इलाके के...किसी और कल्चर को जीनेवाले...उनका मन करे तो अचानक रोककर आपके बदन को यूं खुरचने लगते हैं मानो बंदूके छिपाई हों, कपड़ों के भीतर नहीं, बदन के भीतर...कोई लड़की घर से बाहर निकले तो घूरती निगाहें उसका इस्तेकबाल करती हैं और दूर तक उसके पीछे लगी रहती हैं...अक्सर सुनते हैं फौजियों ने रेप किया...हम जानते हैं सब फौजी एक से नहीं होते...लेकिन डर तो एक होते हैं साहब...खबरों को शक में तब्दील होते देर नहीं लगती...किस पर यकीन करें, किस पर शक करें कुछ समझ में नहीं आता...
आप उन्हें गैर मजहबी, गैर इलाकाई, गैर तहजीब के मानते ही क्यों हैं...वे आपके अपने हैं, आपके अपने भारतीय...मैं ज्यादा भावुक तर्क करने की कोशिश में हूं...गलत कोशिश...वे धधक उठते हैं – आप मानते हैं?? आप मानते हैं सभी भारतीयों को सिर्फ भारतीय? हमने देखा है भारत के मुंबई में भारत के यूपी और भारत के बिहार वाले भारतीयों को मुंबई के भारतीयों के हाथों पिटते हुए, लुटते हुए...मरते हुए...वे तो गैर मजहब के भी नहीं थे...अलग तहजीब के भी नहीं थे...बस एक जगह से दूसरी जगह आए थे...क्यों नहीं माना गया उन्हें अपना...फिर हमसे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इन लोगों को अपना मान लें...वो भी तब, जब हमने देखा है, झेला है...इनकी मार को, इनकी घिन को...
मुझे शर्म आने लगती है, खुद पर...फिर संभलता हूं...एक सवाल है, मेरा रामबाण...कश्मीरी पंडित...उनके सामने उछाल देता हूं...वे क्या आपके अपने नहीं थे...उनका दर्द क्या कुछ नहीं...वे जो आज अपने घरों, अपनी जमीनों से कटे बैठे सिसक रहे हैं...क्या उन्होंने कम झेला है...वे मुस्कुरा देते हैं, मानो उन्हें इसी का इंतजार था...वो, जिसके बाल पुराने धोनी जैसे हैं, मुझे अपना मोबाइल पकड़ा देता है...उसकी स्क्रीन पर एक फोटो है...कहता है, ये क्वॉर्टर बनाए हैं सरकार ने उनके लिए जो चले गए हैं...सरकार चाहती है कि वे आ जाएं...क्वॉर्टर खाली पड़े हैं, वे नहीं आते...क्यों? सरकार उन्हें सुरक्षा देने को तैयार है, घर दे रही है...फिर भी वे नहीं आते...क्यों नहीं आते...आएं, जिएं वो सब जो हम जी रहे हैं...साझा करें हमारा दर्द...इस घाटी का दर्द...यह घाटी उनकी है तो इसका दर्द भी तो उनका है...आएं और लाल चौक पर धमाकों में लहू बहाएं, जैसे हम बहाते हैं...लेकिन नहीं, वे नहीं आएंगे...वे चले गए क्योंकि वे जा सकते थे...उनके पास जाने के लिए जगह थी...हम नहीं जा सकते, क्योंकि हमारे पास नहीं है वो जगह...हम कहां जाएं...दिल्ली? मुंबई? वहां भी हमें उन शक भरी निगाहों का सामना तो करना ही है...कश्मीरी पंडितों को कोई शक की निगाह से नहीं देखता...अपनाता है...हमें कोई नहीं अपनाता...शक की निगाह से देखता है...सबको लगता है कि फिरन के नीचे से अभी हम एके 47 निकाल लेंगे...
मेरे पास जवाब नहीं है...पर सवाल है...और वे जो उधर से आते हैं...वे आपके अपने हैं? नहीं साहब...बंदूक कहां किसी की अपनी होती है...हम जानते हैं कि वे भी अपने नहीं...ये घरों के बाहर खड़े रहते हैं तो उनको घरों के भीतर झेलना पड़ता है...दोनों ओर से मरना तो हमें ही है...इसीलिए तो कहते हैं कि हमें दोनों बख्श दो...हमें न ये चाहिए, न वे चाहिए...हम बस सुकून से रहना चाहते हैं...
60 साल में हम इन्हें अपना क्यों नहीं बना पाए...सेना भेजकर हमने क्या हासिल किया...नफरतें...इनका दिल जीतना हमारा फर्ज था...60 साल हो गए इस कोशिश में...और हम बुरी तरह नाकाम रहे हैं। आज भी वे लोग इस मुल्क को अपना नहीं मानते तो यह उनका नहीं हमारा कसूर है...आज भी हमें प्रशासन चलाने के लिए सेना की जरूरत पड़ती है...और जो लोग इस बात से खुश होते हैं कि चुनाव में भारी वोटिंग हुई, उनका जवाब भी मिला...’वह’ बोला – चुनाव में वोट हम भारत के लिए नहीं डालते, अपनी बिजली, सड़क और पानी के लिए डालते हैं, इनका कश्मीर के मसले से कोई लेना देना नहीं है...आपके मुल्क से इसका कोई लेना-देना नहीं.
आपका मुल्क...आपका मुल्क...चुभता रहता है...कौंधता रहता है...