श्रीनगर…शाम का वक्त...हसीन गुदगुदाती सी ठंड...डल लेक का किनारा...और मोहब्बत? सही सीक्वेंस तो यही बनता है...लेकिन ऐसा था नहीं...
श्रीनगर…शाम का वक्त...नवंबर की हसीन गुदगुदाती सी ठंड...डल लेक का किनारा...बंदूकें...और उन्हें थामे हरी वर्दी में घूमते फौजी...वे आपको लगातार घूरते रहते हैं...आंखें मिली नहीं कि वे आपके दिमाग में घुस जाते हैं...आपके ख्यालों को चीरफाड़ कर रख देते हैं...किसी साजिश की तलाश में...यानी आपके वजूद पर ही नहीं, ख्यालों पर भी संगीनों का पहरा...यूं संगीनों के पहरे में ख्यालों की चीरफाड़ के बीच मोहब्बत जैसे अल्फाज़ डरकर छिपे रहते हैं...
मुझे लगा यही तो हो रहा है कश्मीर के साथ...कश्मीरियत के साथ...वहां कैसे पनपेगी मोहब्बत...देश के लिए...भारत के लिए...उन संगीनों ने तो आपस में प्यार करने लायक भी नहीं छोड़ा है इंसानों को...श्रीनगर की खौफजदा सी गलियों में घूमते हुए टकराए वे नौजवान जाने क्यों अपने से नहीं लगते...उन आंखों में या तो बगावत दिखी या नफरत...मादा आंखों कुछ पनीला सा नजर आया था...ठीक-ठीक मालूम नहीं...मजबूरी थी शायद...इधर या उधर न हो पाने की मजबूरी...वे लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं...लेकिन खुश नहीं हैं...गुस्सा हैं...कुछ भारत से, कुछ पाकिस्तान से और बाकी खुद से...
मैं जिक्र छेड़ने की कोशिश करता हूं, वे टाल देना चाहते हैं...एक गैर के सामने अपने घर की बातें करते शायद झिझक रहे हैं...मैं कुरेदता हूं, वे झिझकते हैं...मैं और कुरेदता हूं...वे फूट पड़ते हैं...क्यों रहें हम भारत के साथ...इसलिए कि हमारे बच्चों का बचपन भी फौजी बूटों की आहट से घबराते और गोलियों की आवाजों से सहमते हुए गुजरे...वे भी बड़े हों तो धमाकों की आवाज और कभी भी कुछ भी हो जाने का डर जिंदगी पर उनके यकीन की जड़ें हिला चुका हो...
लेकिन फौज तो आपके लिए ही है...आपकी सुरक्षा के लिए...मेरा भारतीय दिमाग तर्क करने से बाज नहीं आता...उनके पास जवाब है...हर बात का करारा जवाब...वो लड़की बोल उठती है...फौजें सरहदों पर अच्छी लगती हैं साहब, घरों की देहरियों पर नहीं...आपको कैसा लगेगा जब आप सुबह घर से बाहर निकलें तो आपका सामना दो अनजान लोगों से हो जो लगातार आपके घर के सामने तैनात रहते हैं...किसी और मजहब के...किसी और इलाके के...किसी और कल्चर को जीनेवाले...उनका मन करे तो अचानक रोककर आपके बदन को यूं खुरचने लगते हैं मानो बंदूके छिपाई हों, कपड़ों के भीतर नहीं, बदन के भीतर...कोई लड़की घर से बाहर निकले तो घूरती निगाहें उसका इस्तेकबाल करती हैं और दूर तक उसके पीछे लगी रहती हैं...अक्सर सुनते हैं फौजियों ने रेप किया...हम जानते हैं सब फौजी एक से नहीं होते...लेकिन डर तो एक होते हैं साहब...खबरों को शक में तब्दील होते देर नहीं लगती...किस पर यकीन करें, किस पर शक करें कुछ समझ में नहीं आता...
आप उन्हें गैर मजहबी, गैर इलाकाई, गैर तहजीब के मानते ही क्यों हैं...वे आपके अपने हैं, आपके अपने भारतीय...मैं ज्यादा भावुक तर्क करने की कोशिश में हूं...गलत कोशिश...वे धधक उठते हैं – आप मानते हैं?? आप मानते हैं सभी भारतीयों को सिर्फ भारतीय? हमने देखा है भारत के मुंबई में भारत के यूपी और भारत के बिहार वाले भारतीयों को मुंबई के भारतीयों के हाथों पिटते हुए, लुटते हुए...मरते हुए...वे तो गैर मजहब के भी नहीं थे...अलग तहजीब के भी नहीं थे...बस एक जगह से दूसरी जगह आए थे...क्यों नहीं माना गया उन्हें अपना...फिर हमसे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि इन लोगों को अपना मान लें...वो भी तब, जब हमने देखा है, झेला है...इनकी मार को, इनकी घिन को...
मुझे शर्म आने लगती है, खुद पर...फिर संभलता हूं...एक सवाल है, मेरा रामबाण...कश्मीरी पंडित...उनके सामने उछाल देता हूं...वे क्या आपके अपने नहीं थे...उनका दर्द क्या कुछ नहीं...वे जो आज अपने घरों, अपनी जमीनों से कटे बैठे सिसक रहे हैं...क्या उन्होंने कम झेला है...वे मुस्कुरा देते हैं, मानो उन्हें इसी का इंतजार था...वो, जिसके बाल पुराने धोनी जैसे हैं, मुझे अपना मोबाइल पकड़ा देता है...उसकी स्क्रीन पर एक फोटो है...कहता है, ये क्वॉर्टर बनाए हैं सरकार ने उनके लिए जो चले गए हैं...सरकार चाहती है कि वे आ जाएं...क्वॉर्टर खाली पड़े हैं, वे नहीं आते...क्यों? सरकार उन्हें सुरक्षा देने को तैयार है, घर दे रही है...फिर भी वे नहीं आते...क्यों नहीं आते...आएं, जिएं वो सब जो हम जी रहे हैं...साझा करें हमारा दर्द...इस घाटी का दर्द...यह घाटी उनकी है तो इसका दर्द भी तो उनका है...आएं और लाल चौक पर धमाकों में लहू बहाएं, जैसे हम बहाते हैं...लेकिन नहीं, वे नहीं आएंगे...वे चले गए क्योंकि वे जा सकते थे...उनके पास जाने के लिए जगह थी...हम नहीं जा सकते, क्योंकि हमारे पास नहीं है वो जगह...हम कहां जाएं...दिल्ली? मुंबई? वहां भी हमें उन शक भरी निगाहों का सामना तो करना ही है...कश्मीरी पंडितों को कोई शक की निगाह से नहीं देखता...अपनाता है...हमें कोई नहीं अपनाता...शक की निगाह से देखता है...सबको लगता है कि फिरन के नीचे से अभी हम एके 47 निकाल लेंगे...
मेरे पास जवाब नहीं है...पर सवाल है...और वे जो उधर से आते हैं...वे आपके अपने हैं? नहीं साहब...बंदूक कहां किसी की अपनी होती है...हम जानते हैं कि वे भी अपने नहीं...ये घरों के बाहर खड़े रहते हैं तो उनको घरों के भीतर झेलना पड़ता है...दोनों ओर से मरना तो हमें ही है...इसीलिए तो कहते हैं कि हमें दोनों बख्श दो...हमें न ये चाहिए, न वे चाहिए...हम बस सुकून से रहना चाहते हैं...
60 साल में हम इन्हें अपना क्यों नहीं बना पाए...सेना भेजकर हमने क्या हासिल किया...नफरतें...इनका दिल जीतना हमारा फर्ज था...60 साल हो गए इस कोशिश में...और हम बुरी तरह नाकाम रहे हैं। आज भी वे लोग इस मुल्क को अपना नहीं मानते तो यह उनका नहीं हमारा कसूर है...आज भी हमें प्रशासन चलाने के लिए सेना की जरूरत पड़ती है...और जो लोग इस बात से खुश होते हैं कि चुनाव में भारी वोटिंग हुई, उनका जवाब भी मिला...’वह’ बोला – चुनाव में वोट हम भारत के लिए नहीं डालते, अपनी बिजली, सड़क और पानी के लिए डालते हैं, इनका कश्मीर के मसले से कोई लेना देना नहीं है...आपके मुल्क से इसका कोई लेना-देना नहीं.
आपका मुल्क...आपका मुल्क...चुभता रहता है...कौंधता रहता है...
Thursday, 29 October 2009
Saturday, 24 October 2009
प्लीज, 'जेल' के सीन सेंसर न करो
एक फिल्म आनेवाली है...जेल...सुना है मधुर भंडारकर की इस फिल्म पर सेंसर ने बेरहमी से कैंची चलाई है। 7 सीन काट डाले हैं। इनमें कुछ न्यूड सीन हैं और कुछ जेल की वीभत्स जिंदगी दिखाते हैं...नहीं काटने चाहिए थे जेल वाले सीन...लोगों के सामने सच आना चाहिए। कितना जानते हैं लोग जेल की जिंदगी के बारे में...मुझे ‘उसने’ बताया था...वह बस में मेरी बगलवाली सीट पर बैठा था...मेरे हाथ में अखबार था और पढ़ वह रहा था...कोने में ‘जेल’ फिल्म की खबर थी –
जेल की जिंदगी का सच बहुत भयानक होता है – नील नितिन मुकेश
उसकी आंखें उसी पर गड़ी थीं...वे निगाहें जब डिस्टर्ब करने लगीं, तो मैंने अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया...तब ध्यान दिया...उसके चेहरे पर दो अजीब चीजें थीं...एक तो दाढ़ी...जैसे सदियों से वहीं जमी हो...और उसकी आंखें...छोटी-छोटी आंखें भी डरावनी हो सकती हैं, उसी दिन महसूस हुआ...उसने मेरी तरफ देखा तो मैं डर गया...वह भांप गया और मुस्कुरा दिया...बोला, सालभर से दाढ़ी नहीं बनाई है।
क्यों?
बस, जेल में सर्वाइव करने के लिए कुछ टोटके करने होते हैं।
जेल में??? मेरे मुंह से शब्द मुश्किल से निकले थे।
जी...वहीं से आ रहा हूं।
मेरे चेहरे पर कई भाव एकसाथ आ गए। उसने पकड़ लिया। बोला, मर्डर केस में अंदर था। आज ही जमानत पर छूटा हूं एक साल बाद। इस एक साल में असली चेहरे देखे हैं और इतनी करीब से देखे हैं कि हर तरह के भावों को पहचानने लगा हूं।
मैं थोड़ा कंफर्टेबल हो गया था। बोला, कैसी थी जेल की जिंदगी?
जैसी फिल्मों में दिखाते हैं वैसी तो बिल्कुल नहीं थी (उसने बोलना शुरू किया और बोलता ही गया, मानो कब से चुप बैठा हो) जेल की बैरकों में घड़ी नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि तब तो रहना मौत से बदतर हो जाएगा। लोग दिनभर बैठे वक्त का अंदाजा लगाते रहते हैं और वक्त कटता जाता है। लेकिन घड़ी सामने हो तो उसे देख-देखकर तो टाइम गुजरेगा ही नहीं। एक आदमी 10 साल से अंदर था। फिर उसकी रिहाई का वक्त आया। उसे शुक्रवार को रिहा होना था, लेकिन किसी वजह से टल गया। अब उसे सोमवार तक इंतजार करना था। 10 साल जेल में काटनेवाला आदमी दो दिन में ही पागल सा हो गया।
मैं और जानना चाहता था। वह बोल रहा था, जेल में कुछ खूंखार कैदियों का ही हुक्म चलता है। वहां वे बिल्कुल निरंकुश होते हैं, क्योंकि उन्हें किसी का डर नहीं होता। जो जेल पहुंच ही गया, उसे किसका डर। वे लोगों के साथ सब कुछ करते हैं...सब कुछ। उन्हीं की देखादेखी मैंने भी दाढ़ी रख ली थी, ताकि मासूम न लगूं। जो जितना मासूम, उसे उतना ज्यादा खतरा। मजे की बात है कि जेल में कानून तोड़ने की वजह से डालते हैं, लेकिन वहां कोई कानून नहीं चलता। वहां सिर्फ जंगल का कानून चलता है। जो ताकतवर है, वही जिएगा। पिटाई तो आम बात है, रेप भी हो जाए तो कोई चौंकता नहीं।
आपको जेल की सबसे खराब बात क्या लगी? पूछते ही मैं समझ गया कि बेवकूफीभरा सवाल है। लेकिन उसने जवाब दिया – यही कि वहां बंद ज्यादातर लोग अपराधी नहीं हैं। बोलते-बोलते वह खड़ा हो गया। उसे उतरना था। मैंने झिझकते हुए पूछा – क्या ...आपने...सच में...कत्ल किया था?
वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुराया और बिना कुछ बोले बस से उतर गया।
तब से मैं जेल की जिंदगी का सच जानना चाहता हूं। इसीलिए मैं चाहता हूं कि सेंसर बोर्ड ‘जेल’ फिल्म के सीन न काटे। आखिर कब तक कोई और फैसला करेगा कि हम क्या देखें और क्या नहीं।
वैसे, आप जानते हैं, जेल की कोई सचाई?
जेल की जिंदगी का सच बहुत भयानक होता है – नील नितिन मुकेश
उसकी आंखें उसी पर गड़ी थीं...वे निगाहें जब डिस्टर्ब करने लगीं, तो मैंने अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया...तब ध्यान दिया...उसके चेहरे पर दो अजीब चीजें थीं...एक तो दाढ़ी...जैसे सदियों से वहीं जमी हो...और उसकी आंखें...छोटी-छोटी आंखें भी डरावनी हो सकती हैं, उसी दिन महसूस हुआ...उसने मेरी तरफ देखा तो मैं डर गया...वह भांप गया और मुस्कुरा दिया...बोला, सालभर से दाढ़ी नहीं बनाई है।
क्यों?
बस, जेल में सर्वाइव करने के लिए कुछ टोटके करने होते हैं।
जेल में??? मेरे मुंह से शब्द मुश्किल से निकले थे।
जी...वहीं से आ रहा हूं।
मेरे चेहरे पर कई भाव एकसाथ आ गए। उसने पकड़ लिया। बोला, मर्डर केस में अंदर था। आज ही जमानत पर छूटा हूं एक साल बाद। इस एक साल में असली चेहरे देखे हैं और इतनी करीब से देखे हैं कि हर तरह के भावों को पहचानने लगा हूं।
मैं थोड़ा कंफर्टेबल हो गया था। बोला, कैसी थी जेल की जिंदगी?
जैसी फिल्मों में दिखाते हैं वैसी तो बिल्कुल नहीं थी (उसने बोलना शुरू किया और बोलता ही गया, मानो कब से चुप बैठा हो) जेल की बैरकों में घड़ी नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए क्योंकि तब तो रहना मौत से बदतर हो जाएगा। लोग दिनभर बैठे वक्त का अंदाजा लगाते रहते हैं और वक्त कटता जाता है। लेकिन घड़ी सामने हो तो उसे देख-देखकर तो टाइम गुजरेगा ही नहीं। एक आदमी 10 साल से अंदर था। फिर उसकी रिहाई का वक्त आया। उसे शुक्रवार को रिहा होना था, लेकिन किसी वजह से टल गया। अब उसे सोमवार तक इंतजार करना था। 10 साल जेल में काटनेवाला आदमी दो दिन में ही पागल सा हो गया।
मैं और जानना चाहता था। वह बोल रहा था, जेल में कुछ खूंखार कैदियों का ही हुक्म चलता है। वहां वे बिल्कुल निरंकुश होते हैं, क्योंकि उन्हें किसी का डर नहीं होता। जो जेल पहुंच ही गया, उसे किसका डर। वे लोगों के साथ सब कुछ करते हैं...सब कुछ। उन्हीं की देखादेखी मैंने भी दाढ़ी रख ली थी, ताकि मासूम न लगूं। जो जितना मासूम, उसे उतना ज्यादा खतरा। मजे की बात है कि जेल में कानून तोड़ने की वजह से डालते हैं, लेकिन वहां कोई कानून नहीं चलता। वहां सिर्फ जंगल का कानून चलता है। जो ताकतवर है, वही जिएगा। पिटाई तो आम बात है, रेप भी हो जाए तो कोई चौंकता नहीं।
आपको जेल की सबसे खराब बात क्या लगी? पूछते ही मैं समझ गया कि बेवकूफीभरा सवाल है। लेकिन उसने जवाब दिया – यही कि वहां बंद ज्यादातर लोग अपराधी नहीं हैं। बोलते-बोलते वह खड़ा हो गया। उसे उतरना था। मैंने झिझकते हुए पूछा – क्या ...आपने...सच में...कत्ल किया था?
वह मेरी तरफ देखकर मुस्कुराया और बिना कुछ बोले बस से उतर गया।
तब से मैं जेल की जिंदगी का सच जानना चाहता हूं। इसीलिए मैं चाहता हूं कि सेंसर बोर्ड ‘जेल’ फिल्म के सीन न काटे। आखिर कब तक कोई और फैसला करेगा कि हम क्या देखें और क्या नहीं।
वैसे, आप जानते हैं, जेल की कोई सचाई?
Wednesday, 14 October 2009
मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त!
3 बज रहे हैं
अंधेरा बस समेटने ही वाला है
रातभर की कमाई।
बांध लेगा अपनी पोटली में
घबराहट से टूटे
खिड़कियों पर टंगे सपने।
परदों से झांककर चुराई
मोहब्बत में भीगी चादरें।
उनीदें सीनों पर
औंधी सोई पड़ी किताबें।
रजाई के अंदर जारी
मोबाइल फोन्स की खुसर-फुसर।
दरवाजों के बाहर रखे
किराए पर रहने वाले लड़कों के
देर तक बजे ठहाके।
कॉल सेंटर कैब्स से उतरतीं
खूबसूरत थकानें।
ग्राउंड फ्लोर वाले गुप्ते के
चौकन्ने कुत्ते का खिजाता शोर।
चौकीदार के पतले कंबल में
दुबकी बैठी ठिठुरन।
इतना काफी नहीं है क्या?
मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त !!
अंधेरा बस समेटने ही वाला है
रातभर की कमाई।
बांध लेगा अपनी पोटली में
घबराहट से टूटे
खिड़कियों पर टंगे सपने।
परदों से झांककर चुराई
मोहब्बत में भीगी चादरें।
उनीदें सीनों पर
औंधी सोई पड़ी किताबें।
रजाई के अंदर जारी
मोबाइल फोन्स की खुसर-फुसर।
दरवाजों के बाहर रखे
किराए पर रहने वाले लड़कों के
देर तक बजे ठहाके।
कॉल सेंटर कैब्स से उतरतीं
खूबसूरत थकानें।
ग्राउंड फ्लोर वाले गुप्ते के
चौकन्ने कुत्ते का खिजाता शोर।
चौकीदार के पतले कंबल में
दुबकी बैठी ठिठुरन।
इतना काफी नहीं है क्या?
मेरी नींद तो लौटाता जा, कम्बख्त !!
Friday, 2 October 2009
तुमने राम को अपनाकर सही नहीं किया गांधी
हे गांधी बाबा
मैं तुम्हें बहुत मानता हूं। फिर भी, जब मायावती ने तुम्हें नाटकबाज़ कहा, तो मुझे ज्यादा दुख नहीं हुआ। हो सकता है नाटकबाज एक कड़वा शब्द हो, लेकिन यह कड़वाहट इसके अर्थ की गंभीरता को कम नहीं कर सकती।
ऐसा नहीं कि तुमने जो कुछ भी किया, वह एक नाटक था, कि तुम जो कहते थे उसे करना ही नहीं चाहते थे, लेकिन उसके नतीजे सिफर ही होने थे...सिफर ही हुए। क्या तुम्हारा एक भी मकसद पूरा हुआ? तुम जिस ‘राम-राज्य’ का सपना देखते-देखते विदा हुए, क्या एक पल के लिए भी यह राज्य उस ओर बढ़ पाया?
जवाब है नहीं...और अगर इसके लिए तुम्हें जिम्मेदार ठहराया जाए, तो गलत भी क्या है। भारत के इतिहास में एक तुम्हीं हुए, जिसकी एक आवाज पर पूरा देश कुछ भी कर गुजरने को तैयार था। लेकिन तुमने उन लोगों को राम के हाथों सौंप दिया। तुम जो भी करते, उसका श्रेय राम को दे देते...उस राम को, जिसके नाम पर हजारों साल से इस देश में हर 'गलत' काम को जायज ठहराया जाता रहा। राम से प्रेरणा पाते हिंदू धर्म के जिस आधार में खामियों की वजह से एक भेदभावपूर्ण, अन्यायी रस्म-ओ-रिवाजों और भौंडी परंपराओं से भरा समाज तैयार हुआ था, उसी राम की प्रेरणा और हिंदू धर्म के आधार पर तुम कैसे स्वस्थ और समतामूलक समाज तैयार कर सकते थे?
और यह बात तो राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों ने उसी वक्त तुम्हें समझा दी थी। मुझे नहीं पता, तुम जैसे महान दार्शनिक ने इसे कैसे समझा होगा, लेकिन तुमने जो किया, उसके नतीजे देखकर मुझे यह कहने का हक है कि तुमने जो आधार चुना, उसी में खामियां थीं। हजारों साल से पीड़ित ‘नीची जातियों’ को तुमने हरिजन कहकर ऊंचा उठाने की कोशिश की, लेकिन उसी हरि के नाम पर तो उन्हें ‘नीचा’ माना गया था। वे लोग जो खुद को गर्व से हिंदू कहते हुए और राम को मानते हुए भी इन ‘नीची जातियों’ को और नीचे धकेलते आ रहे थे, उन्हें तुमने न हिंदू धर्म को मानने से रोका, न राम को मानने से। उनके भेदभावपूर्ण विश्वास के आधार में ही कोई बदलाव नहीं हुआ, फिर सिर्फ नाम बदल देने से उस विश्वास के आधार पर तैयार मान्यताएं कैसे बदल सकती थीं?
हे गांधी बाबा, तुमने आत्मबल को नहीं, रामबल को ही मजबूत किया।
मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि तुम्हें समाज की नब्ज का साफ-साफ पता था। तुमने उस नब्ज को पकड़ा भी सही। इस आधार पर तुमने लोगों को एक रास्ते पर चलने के लिए तैयार भी कर लिया। लेकिन मंजिल का पता तुमने नहीं बदला। उस मंजिल की ओर तो वे पहले ही बढ़ रहे थे, बस उनके रास्ते अलग-अलग थे। तुम्हारे अंदर इतनी समझ और ताकत थी कि उन्हें एक रास्ते पर जमा कर सको, तो तुम्हें उन्हें सही मंजिल की ओर भी मोड़ देना चाहिए था। इतिहास में पहली और शायद आखिरी बार ऐसा हुआ था कि हजारों साल से अलग-अलग रास्तों पर चलता पूरा देश एक जगह आ खड़ा हुआ था, एक साथ चलने को तैयार था और उनका नेतृत्व तुम्हारे हाथ में था। तुम चाहते तो उन्हें कहीं भी ले जा सकते थे। तुम चाहते तो उन्हें इन्सानियत के आधार पर आगे बढ़ने को कहते, राम के आधार पर नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुमने तो उन्हें लड़ने से भी रोका तो राम की दुहाई देकर। उसी राम की दुहाई, जिसके नाम पर वे आमने-सामने आ खड़े हुए थे। कुछ इसलिए, क्योंकि वे राम को मानते थे और कुछ इसलिए कि वे राम को नहीं मानते थे। तुमने क्यों उन्हें नहीं समझाया कि राम से भी बड़ा है इन्सान? तुमने क्यों उन्हें नहीं बताया कि इन्सानियत सबका साझा आधार है और यही एक मात्र आधार हैं जहां कोई किसी से जुदा नहीं है?
तुम तो मरते-मरते भी उन्हें राम के हवाले कर गए। आखिरी वक्त में क्यों तुमने नहीं कहा कि हम सब इन्सान बनकर इस दुनिया, इस देश को संभालें।
देखो, तुम्हारे राम ने क्या कर डाला है। अब सब बंट चुके हैं। इस देश में हिंदू रहते हैं, मुसलमान बसते हैं, दलित हैं, व्यापारी हैं, कर्मचारी हैं, सरकारी हैं, प्राइवेट हैं...नहीं हैं तो बस इन्सान। तुम्हारे मुंह से निकला राम सबने लपक लिया है। सबका अपना-अपना राम है। सब अपने-अपने राम के लिए लड़ते हैं। कोई उस ‘राम’ को मंदिर में बिठाना चाहता है, कोई उस ‘राम’ को पावर बनाना चाहता है। अब तुम खुद भी तो ‘राम’ ही बन गए हो।
मैं तुम्हें बहुत मानता हूं। फिर भी, जब मायावती ने तुम्हें नाटकबाज़ कहा, तो मुझे ज्यादा दुख नहीं हुआ। हो सकता है नाटकबाज एक कड़वा शब्द हो, लेकिन यह कड़वाहट इसके अर्थ की गंभीरता को कम नहीं कर सकती।
ऐसा नहीं कि तुमने जो कुछ भी किया, वह एक नाटक था, कि तुम जो कहते थे उसे करना ही नहीं चाहते थे, लेकिन उसके नतीजे सिफर ही होने थे...सिफर ही हुए। क्या तुम्हारा एक भी मकसद पूरा हुआ? तुम जिस ‘राम-राज्य’ का सपना देखते-देखते विदा हुए, क्या एक पल के लिए भी यह राज्य उस ओर बढ़ पाया?
जवाब है नहीं...और अगर इसके लिए तुम्हें जिम्मेदार ठहराया जाए, तो गलत भी क्या है। भारत के इतिहास में एक तुम्हीं हुए, जिसकी एक आवाज पर पूरा देश कुछ भी कर गुजरने को तैयार था। लेकिन तुमने उन लोगों को राम के हाथों सौंप दिया। तुम जो भी करते, उसका श्रेय राम को दे देते...उस राम को, जिसके नाम पर हजारों साल से इस देश में हर 'गलत' काम को जायज ठहराया जाता रहा। राम से प्रेरणा पाते हिंदू धर्म के जिस आधार में खामियों की वजह से एक भेदभावपूर्ण, अन्यायी रस्म-ओ-रिवाजों और भौंडी परंपराओं से भरा समाज तैयार हुआ था, उसी राम की प्रेरणा और हिंदू धर्म के आधार पर तुम कैसे स्वस्थ और समतामूलक समाज तैयार कर सकते थे?
और यह बात तो राहुल सांकृत्यायन जैसे लोगों ने उसी वक्त तुम्हें समझा दी थी। मुझे नहीं पता, तुम जैसे महान दार्शनिक ने इसे कैसे समझा होगा, लेकिन तुमने जो किया, उसके नतीजे देखकर मुझे यह कहने का हक है कि तुमने जो आधार चुना, उसी में खामियां थीं। हजारों साल से पीड़ित ‘नीची जातियों’ को तुमने हरिजन कहकर ऊंचा उठाने की कोशिश की, लेकिन उसी हरि के नाम पर तो उन्हें ‘नीचा’ माना गया था। वे लोग जो खुद को गर्व से हिंदू कहते हुए और राम को मानते हुए भी इन ‘नीची जातियों’ को और नीचे धकेलते आ रहे थे, उन्हें तुमने न हिंदू धर्म को मानने से रोका, न राम को मानने से। उनके भेदभावपूर्ण विश्वास के आधार में ही कोई बदलाव नहीं हुआ, फिर सिर्फ नाम बदल देने से उस विश्वास के आधार पर तैयार मान्यताएं कैसे बदल सकती थीं?
हे गांधी बाबा, तुमने आत्मबल को नहीं, रामबल को ही मजबूत किया।
मैं इस बात से इनकार नहीं करता कि तुम्हें समाज की नब्ज का साफ-साफ पता था। तुमने उस नब्ज को पकड़ा भी सही। इस आधार पर तुमने लोगों को एक रास्ते पर चलने के लिए तैयार भी कर लिया। लेकिन मंजिल का पता तुमने नहीं बदला। उस मंजिल की ओर तो वे पहले ही बढ़ रहे थे, बस उनके रास्ते अलग-अलग थे। तुम्हारे अंदर इतनी समझ और ताकत थी कि उन्हें एक रास्ते पर जमा कर सको, तो तुम्हें उन्हें सही मंजिल की ओर भी मोड़ देना चाहिए था। इतिहास में पहली और शायद आखिरी बार ऐसा हुआ था कि हजारों साल से अलग-अलग रास्तों पर चलता पूरा देश एक जगह आ खड़ा हुआ था, एक साथ चलने को तैयार था और उनका नेतृत्व तुम्हारे हाथ में था। तुम चाहते तो उन्हें कहीं भी ले जा सकते थे। तुम चाहते तो उन्हें इन्सानियत के आधार पर आगे बढ़ने को कहते, राम के आधार पर नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुमने तो उन्हें लड़ने से भी रोका तो राम की दुहाई देकर। उसी राम की दुहाई, जिसके नाम पर वे आमने-सामने आ खड़े हुए थे। कुछ इसलिए, क्योंकि वे राम को मानते थे और कुछ इसलिए कि वे राम को नहीं मानते थे। तुमने क्यों उन्हें नहीं समझाया कि राम से भी बड़ा है इन्सान? तुमने क्यों उन्हें नहीं बताया कि इन्सानियत सबका साझा आधार है और यही एक मात्र आधार हैं जहां कोई किसी से जुदा नहीं है?
तुम तो मरते-मरते भी उन्हें राम के हवाले कर गए। आखिरी वक्त में क्यों तुमने नहीं कहा कि हम सब इन्सान बनकर इस दुनिया, इस देश को संभालें।
देखो, तुम्हारे राम ने क्या कर डाला है। अब सब बंट चुके हैं। इस देश में हिंदू रहते हैं, मुसलमान बसते हैं, दलित हैं, व्यापारी हैं, कर्मचारी हैं, सरकारी हैं, प्राइवेट हैं...नहीं हैं तो बस इन्सान। तुम्हारे मुंह से निकला राम सबने लपक लिया है। सबका अपना-अपना राम है। सब अपने-अपने राम के लिए लड़ते हैं। कोई उस ‘राम’ को मंदिर में बिठाना चाहता है, कोई उस ‘राम’ को पावर बनाना चाहता है। अब तुम खुद भी तो ‘राम’ ही बन गए हो।
Thursday, 1 October 2009
कल 'मुल्लों' को किसी ने देशद्रोही नहीं कहा
चैंपियंस ट्रोफी में कल गजब का दिन था...सब ‘मुल्ले’ पाकिस्तान की जीत के लिए दुआ कर रहे थे...और सब ‘ना-मुल्ले’ उस दुआ में शामिल थे...वही ‘ना-मुल्ले’, जो ‘मुल्लों’ को पाक की जीत के लिए दुआ करने का अपराधी घोषित करते हैं...और सजा भी तय करते हैं...देशद्रोह की...
कहते हैं पाकिस्तान को दी गई दुआ भी तो देश के लिए ही थी...कौन जाने वे ‘मुल्ले’ पाकिस्तान के लिए उसी तरह दुआ नहीं कर रहे थे, जैसे उन पर आरोप लगते हैं...लेकिन कल कोई सवाल नहीं था...कल उनका 'देशद्रोह' सबको जायज लग रहा था...कुछ 'नामुल्ले' कह रहे थे, अभी हो जाने दो बाद में देख लेंगे...उनकी बेबसी मजेदार थी...
दिलचस्प नजारा था...मजा आ गया...वक्त सबको आईना दिखा गया...
कहते हैं पाकिस्तान को दी गई दुआ भी तो देश के लिए ही थी...कौन जाने वे ‘मुल्ले’ पाकिस्तान के लिए उसी तरह दुआ नहीं कर रहे थे, जैसे उन पर आरोप लगते हैं...लेकिन कल कोई सवाल नहीं था...कल उनका 'देशद्रोह' सबको जायज लग रहा था...कुछ 'नामुल्ले' कह रहे थे, अभी हो जाने दो बाद में देख लेंगे...उनकी बेबसी मजेदार थी...
दिलचस्प नजारा था...मजा आ गया...वक्त सबको आईना दिखा गया...
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