Monday 1 June, 2009

नई भर्तियां चालू आहे...

बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।

प्रभाकरण मारा गया। 25 साल पुराने संघर्ष को कुचलने में सेना को 2.5 महीने भी नहीं लगे। उस संघर्ष को...जिसके पास प्रशिक्षित छापामार सेना थी...नौसेना और वायु सेना की ताकत थी...जिसके जहाज इतनी कुव्वत और हिम्मत रखते थे कि राजधानी के आसमान में पहुंचकर राष्ट्रीय वायु सेना के बेस पर बम बरसा आते थे...जिसके लड़ाके किसी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को धमाकों में उड़ा देते थे...और...जिसके पास दुनिया के कई देशों में ऐसे समर्थक थे...जो दूतावासों पर हमला कर देते थे...बड़ी-बड़ी सरकारों को अपनी बात सुनने पर मजबूर कर देते थे...यूएन तक को बयान देने के लिए तैयार कर लेते थे...उस संघर्ष को कुचलने में श्रीलंका जैसे छोटे से देश की सेना को कुचलने में ढाई महीने भी नहीं लगे।

लिट्टे के तीन दशक तक चले संघर्ष की हालत देखकर अपने नक्सली आंदोलन की फिक्र होने लगी है। लिट्टे की लड़ाई के तरीके पर बहस हो सकती है, आंदोलन के भटक जाने की जो बात कही जाती है, उसे लेकर बहस हो सकती है, लेकिन इस बात में तो कोई संशय नहीं है कि लिट्टे का संघर्ष आखिर में एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई ही था। अपना नक्सली आंदोलन भी एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई है। इसके आकार और ताकत का लिट्टे से तो मुकाबला भी नहीं किया जा सकता। और फिर भारत और श्रीलंका की सेना का भी क्या मुकाबला है! यानी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस दिन सरकार ने कड़ा फैसला कर लिया, उस दिन से...

बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।

दो साल पहले हरियाणा के कुछ गांवों में धीरे-धीरे दलित संगठित होने लगे। बैठकें होने लगीं। तथाकथित ऊंची जातियों से उनके संघर्ष की घटनाएं बढ़ने लगीं। अब तक किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया था। फिर अचानक कई जगह से जमीन पर कब्जे की खबरें आने लगीं। ऐसा हुआ तो प्रशासन हरकत में आया। जांच शुरू हुई और पता चला कि इस सब के पीछे कुछ युवा संगठन हैं। ऐसे संगठनों की सूचि बनाई गई, तो सभी में एक बात साझी निकली। सभी ‘जनवादी’ संगठन थे। जांच के दौरान पुलिस को कई जगह से माओवादी साहित्य भी मिला।

बस फिर क्या था...सीआईडी को तुरत-फुरत में लोगों के पीछे लगा दिया गया। पुलिस ने धरपकड़ शुरू कर दी। युवा संगठनों से जुड़े लोगों में हड़कंप मच गया। अंडरग्राउंड हो जाने जैसी चीज़ें पहले उन्होंने कभी सोची भी नहीं थीं। वे लोग इधर-उधर भागने लगे। सबके फोन बंद हो गए। कोई मिलने या बात करने को तैयार नहीं था।

पुलिस ने सबको तो पकड़ा ही नहीं। कुछ लड़के-लड़कियों को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमे दर्ज कर दिए गए। हालांकि कुछ युवाओं को पुलिस काफी मशक्कत के बाद भी नहीं पकड़ पाई। बाद में सुना कि वे छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश चले गए। लेकिन और भी बहुत से ऐसे नौजवान थे, जो इस आंदोलन में सक्रिय थे और जिन्हें पुलिस आसानी से पकड़ सकती थी, लेकिन उन्हें नहीं पकड़ा गया। वैसे, यह सूचना लगातार उन तक पहुंचती रही कि उनका नाम लिस्ट में है और उन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। एक एसपी ने मुझे बताया था कि इन लोगों को गिरफ्तार करना जरूरी नहीं है, पकड़े जाने का डर ही इनके लिए काफी है और रही सही कसर कुछ गिरफ्तारियां पूरी कर देंगी। उस अफसर का कहना था कि हमारा मकसद नौजवानों को गिरफ्तार करना नहीं, इस आंदोलन की चिंगारी को बुझाना है।

यूं चिंगारियां बुझतीं तो दुनिया में कुछ न होता, लेकिन सरकार अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब रही। गतिविधियां बंद हो गईं। जो नौजवान समाज बदल देने निकले थे, उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां पकड़ लीं। जो लड़के-लड़कियां कुछ कर गुजरने को तैयार थे, उनकी शादियां हो गईं। रातों को दीवारों पर नारे लिखनेवाले सरकारी नौकरियां पाने के लिए बी.एड और क्लर्की जैसे कॉम्पिटिशंस की तैयारियों में खो गए। सालभर के अंदर सरकार ने उन्हें भी छोड़ दिया, जो गिरफ्तार किए गए थे।

ऐसा होने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। तैयारी की कमी, जल्दबाजी, अतिउत्साह आदि-आदि...लेकिन मुझे हाल ही में मिले एक नौजवान की बात बहुत याद आती है। कभी आंदोलन में जुटे लड़कों में अपने गीतों से जोश भर देने वाले उस लड़के ने कहा - स्टेट के खिलाफ लड़ना बहुत मुश्किल है।

वैसे मैं इस पूरे घटनाक्रम ने निराश नहीं हूं। मैं तो इसे बड़ी लड़ाई के लिए पहले कदम के तौर पर देखता हूं और खुश हूं कि कुछ युवाओं ने इतनी हिम्मत दिखाई। लेकिन इसका एक निराशाजनक पहलू भी है, जिसे नक्सली आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संकेत के रूप में देखा जा सकता है। जब वे लड़के-लड़कियां गिरफ्तार हुए, तब उनके लिए समाज में एक भी आवाज नहीं उठी। उनकी तरफ से भी नहीं जो उनके हिमायती माने जाते थे। उस दौरान रिपोर्टिन्ग करते हुए मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला, जो सरकारी विभागों में अफसर थे, यूनिवर्सिटियों में प्रफेसर थे, कॉलेजों में लेक्चरर्स थे, जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता थे और इन नौजवानों के साथ काम करते थे। इनकी हौसलाअफजाई में उन लोगों की अहम भूमिका थी। लेकिन जब पुलिस सक्रिय हुई, तो उन लोगों ने सबसे पहले इनसे नाता तोड़ा। इनके बारे में बात करने तक को वे तैयार नहीं थे। इन नौजवानों से अपने रिश्तों को वे उसी तरह छिपा रहे थे, जैसा पंजाब के आतंकवाद के दौर में हुआ करता था।

अगर आंदोलन के मकसद को समझाया गया होता... बात को उस आम आदमी तक पहुंचाया गया होता, जिनकी खातिर लड़ा जा रहा था...उन युवाओं तक पहुंचाया गया होता, जिनकी यह लड़ाई थी, तो एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो सकता था। छात्र सड़कों पर उतर आते, मोर्चे निकलते, हड़तालें होतीं और पता नहीं क्या हो जाता...

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जानते हैं हुआ क्या? इस्माइलाबाद में गिरफ्तार किए गए एक मजदूर ने मुझे बताया कि उसे छूटने के लिए उन्हीं लोगों के हाथ-पांव जोड़ने पड़े, जिनके खिलाफ वह लड़ रहा था, क्योंकि उसके साथियों-सहयोगियों में से कोई भी उसकी मदद के लिए मौजूद नहीं था।

यह हाल पूरे नक्सली आंदोलन का है। डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए उन्हीं पूंजीवादी देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ता नारे लगाते दिखते हैं, जिनके बनाए सिस्टम के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है। वह भी बाहर आकर यही कहते हैं कि हथियारों से लड़ाई जीती नहीं जा सकती। कौन जानता है कि जंगल में बैठे वे पढ़े-लिखे लोग क्यों हथियार उठाए हुए हैं? क्यों वे रोजाना 10-15 पुलिसवालों को मार देते हैं? क्या पुलिसवालों को मारकर ही क्रांति हासिल होगी? मुझे बहुत हैरत होगी, अगर मुझे पता चले कि इन लोगों को नहीं पता है कि मारे गए पुलिसवालों की जगह नए पुलिसवालों को आने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। इस ‘यूज़लेस किलिंग’ से क्रांति कैसे हासिल होगी, मुझे समझ नहीं आता।

मुझे बस इतना समझ आता है कि दशकों की लड़ाई के बाद भी एक जंगल के बाहर एक ऐसा समर्थन तैयार नहीं किया जा सका है, जो उनकी बात को समझता और मानता हो। एक ऐसा समर्थन जो सरकार के किसी कड़े फैसले के खिलाफ सड़कों पर नजर आएगा। एक ऐसा समर्थन जो ताकत बन जाएगा, जब बदलाव के लिए बड़े धक्के की जरूरत होगी। तब तक आप रोज पुलिसवालों को उड़ाते रहिए, नई पुलिसभर्तियां जारी हैं।

(आप में से बहुत से लोग नक्सलवादी आंदोलन की बेहतर समझ रखते हैं। हो सके तो मेरे इन अनुभवों के आधार पर बनी समझ को स्पष्ट करने में मदद करें।)

1 comment:

QUILINE KAKOTY said...

very nice. ur story remind me one of my fathers line. he used to say in my childhood that ulfa cannot change the system by killing these mahajans. 'kolai mahajan morile bogai mohajan ahibo', means if we kill the kala seth his son gore mahajan will take the charge. ur line remind me my childhood days and really we can't change the system only by this process...