अपनी पिछली पोस्ट हिंदू बच्चे का मुस्लिम नाम...हाय राम में मैंने एक दुआ मांगी थी। आप सभी साथियों ने उस दुआ के लिए हाथ उठाए थे...लेकिन सोमा वैद्य उससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका मानना थोड़ा अलग है। सहमति-असहमति से परे, उनकी टिप्पणी पढ़ने लायक है...
बिल्कुल सही कहा तुमने ….नाम का मतलब उस शब्द का मतलब कम और उस व्यक्ति के धर्म से ज्यादा लगाया जाता है ...जो गलत नहीं है....लेकिन मेरी समझ से यह भी सही नहीं कि किसी धर्म विशेष के व्यक्ति का नाम किसी और धर्म के अनुसार हो ...वजह है... इसके पीछे कारण कट्टर होना नहीं। नाम कहीं न कहीं उन भावनाओं, संस्कृतियों से जुड़ा हुआ है जिन्हें आप मानते हैं ....( शौकिया, फैशनेबल लोगों को छोड़ दें तो ) अगर किसी के नाम से यह पता चलता है कि वह किस संस्कृति में पला बढ़ा है.. किसमें उसकी आस्था है.. तो उसमें कोई हर्ज नहीं। तकलीफ इस बात से है कि हर धर्म को लेकर लोग पूर्वाग्रहों ( शायद यह शब्द ठीक है ) से ग्रसित हैं ..और बस उसके मुताबिक बन जाती है सोच .... इस्माइल नाम सुनते ही दिमाग में हजारों ख्याल दौड़ जाएंगे...तो स्टीवन के नाम से कुछ और ही तस्वीर उभर कर आएगी ...यह जानने की कोशिश किए बिना कि गलत तो सुरेश या दलजीत भी हो सकते हैं...हिंदू अगर अपने बेटे का नाम अयान रखे तो यकीनन काबिल-ए-तारीफ है...लेकिन शायद इससे ज्यादा जरूरत अपनी सोच को बढ़ाने और अपने धर्म को मानते हुए भी औरों के धर्म को आदर देने की है ।
(सोमा वैद्य स्टार न्यूज, मुंबई में असोसिएट प्रड्यूसर हैं।)
Tuesday, 30 June 2009
Thursday, 25 June 2009
हिंदू बच्चे का मुस्लिम नाम...हाय राम !
मुझे नहीं पता था कि यह ‘अपराध’ है। मैंने तो बस एक नाम सुझाया था...वे एक मीनिंगफुल नाम चाहते थे...आजकल यही फैशन है ना...नाम का अच्छा सा मीनिंग होना चाहिए...नाम बोलते हुए चाहे जबान टेढ़ी हो जाए...और मीनिंग भी ऐसा निकलेगा कि उसका भी मीनिंग पूछना पड़े...लेकिन उन्होंने जैसे ही कहा हमारे लिए तो यह ईश्वर का तोहफा है...मेरे मुंह से एक ही शब्द निकला...अयान...अयान यानी खुदा का तोहफा...गिफ्ट ऑफ गॉड...
बस यही मुझसे गलती हो गई...नाम बताते वक्त मैंने यह नहीं सोचा कि अयान उर्दू का लफ़्ज़ है और उस बच्चे के मां-बाप उर्दू को मुसलमानों की जबान समझते हैं। सुनते ही उन्होंने कहा...यह तो मुस्लिम नाम है...मुस्लिम नाम? क्या उर्दू का हर लफ़्ज़ मुस्लिम है?
फिल्म 'अ वेन्जडे' में एक बहुत अच्छा डायलॉग है – नाम रहने दीजिए, क्योंकि नाम को लोग धर्म के साथ जोड़ लेते हैं...अगर हिंदू और मुस्लिम नाम का फर्क मिट जाए तो कैसा हो...कोई अपना नाम बताए और पता ही न चले कि वह हिंदू है या मुसलमान...प्रभात अपने बेटे का नाम नज़ीर रखे और उस्मान के बेटी का नाम हो अपूर्वा...मैं तो यह भी चाहता हूं जॉन अपनी बेटी को ‘बाइ गुरमीत...’ कहकर स्कूल भेजें और कुलविंदर सिंह जी अपने बेटे को पंजाबी में प्यार से ‘ओ पीटरया...’ कह कर पुकारें...लेकिन कुछ लोग संस्कृति की दुहाई देते हैं...उनका तर्क है कि नाम अपनी संस्कृति और सभ्यता से प्रेरित होने चाहिए और उसकी पहचान होने चाहिए...
फिर भी गंगा-जमुनी तहजीब तो हम सबकी साझी है...आज जो संस्कृति हम सबकी है, उसमें कितनी ही चीजें, परंपराएं और चिह्न साझे हो चुके हैं...दुनियाभर की शादियों में लोग पंजाबी पॉप सॉन्ग्स पर ही नाचते हैं...फिर कब तक उन सैकड़ों साल पुरानी बातों की दुहाई देते रहेंगे हम...
जींस कल्चर की सबसे अच्छी बात यही है कि नौजवान अब धार्मिक चिह्न नहीं पहनते...किसी को राम और ओम लिखे कुर्ते पहने देख आप उसका धर्म नहीं बता सकते...धर्मों की ऐसी बहुत सारी खाइयों को पाटने के लिए बहुत सी बातों को बदलना है...क्यों ना शुरुआत नाम से ही करें...
(उस बच्चे का नाम अयान ही रखा गया है...उम्मीद है जब वह बड़ा होगा, तब तक भेद मिट चुका होगा...लोग उसे इंसान के तौर पर ही पहचानेंगे हिंदू या मुसलमान के तौर पर नहीं...आमीन !)
बस यही मुझसे गलती हो गई...नाम बताते वक्त मैंने यह नहीं सोचा कि अयान उर्दू का लफ़्ज़ है और उस बच्चे के मां-बाप उर्दू को मुसलमानों की जबान समझते हैं। सुनते ही उन्होंने कहा...यह तो मुस्लिम नाम है...मुस्लिम नाम? क्या उर्दू का हर लफ़्ज़ मुस्लिम है?
फिल्म 'अ वेन्जडे' में एक बहुत अच्छा डायलॉग है – नाम रहने दीजिए, क्योंकि नाम को लोग धर्म के साथ जोड़ लेते हैं...अगर हिंदू और मुस्लिम नाम का फर्क मिट जाए तो कैसा हो...कोई अपना नाम बताए और पता ही न चले कि वह हिंदू है या मुसलमान...प्रभात अपने बेटे का नाम नज़ीर रखे और उस्मान के बेटी का नाम हो अपूर्वा...मैं तो यह भी चाहता हूं जॉन अपनी बेटी को ‘बाइ गुरमीत...’ कहकर स्कूल भेजें और कुलविंदर सिंह जी अपने बेटे को पंजाबी में प्यार से ‘ओ पीटरया...’ कह कर पुकारें...लेकिन कुछ लोग संस्कृति की दुहाई देते हैं...उनका तर्क है कि नाम अपनी संस्कृति और सभ्यता से प्रेरित होने चाहिए और उसकी पहचान होने चाहिए...
फिर भी गंगा-जमुनी तहजीब तो हम सबकी साझी है...आज जो संस्कृति हम सबकी है, उसमें कितनी ही चीजें, परंपराएं और चिह्न साझे हो चुके हैं...दुनियाभर की शादियों में लोग पंजाबी पॉप सॉन्ग्स पर ही नाचते हैं...फिर कब तक उन सैकड़ों साल पुरानी बातों की दुहाई देते रहेंगे हम...
जींस कल्चर की सबसे अच्छी बात यही है कि नौजवान अब धार्मिक चिह्न नहीं पहनते...किसी को राम और ओम लिखे कुर्ते पहने देख आप उसका धर्म नहीं बता सकते...धर्मों की ऐसी बहुत सारी खाइयों को पाटने के लिए बहुत सी बातों को बदलना है...क्यों ना शुरुआत नाम से ही करें...
(उस बच्चे का नाम अयान ही रखा गया है...उम्मीद है जब वह बड़ा होगा, तब तक भेद मिट चुका होगा...लोग उसे इंसान के तौर पर ही पहचानेंगे हिंदू या मुसलमान के तौर पर नहीं...आमीन !)
Tuesday, 16 June 2009
एक चुराई हुई कविता...
यह कविता मैंने चुराई है
उस फटे-पुराने बूढ़े से
जो मदरडेयरी के पुल पर सड़क किनारे
छतरी ताने बैठा रहता है,
एक मैले से चादरनुमा कपड़े पर
पान-मसाले के पैकिट बिछाए।
चिलचिलाती धूप और तेज़ बारिश में
उसकी छतरी के छेदों से
अक्सर झरती है...कविता।
यह कविता मैंने चुराई है
उस उधड़े हुए मोची से
जो बस स्टॉप के बराबर में बैठा
जीता रहता है
गुजरते जूतों के तलवों के नीचे।
2750 रुपये के जूते में
कील ठुकाई के बाद
5 रुपये देने पर झीकते ग्राहक
अक्सर उगलते हैं...कविता।
यह कविता मैंने चुराई है
उस छोटी सी सेल्सगर्ल से
जो बड़े से शोरूम में
रोज बेचती है हजारों का सामान।
2 मिनट लेट होने पर छोटी सी सैलरी में
बड़ी सी कटौती का डर
जब उसे मजबूर करता है
लफंगों से भरी बस के पीछे भागने के लिए
तो अक्सर उसके कमीज की सिलाई से
फट जाती है...कविता।
यकीन मानिए
अखबार की सुर्खियों से
भरमाए हुए दिलों में
अब कविताएं नहीं उगतीं।
उस फटे-पुराने बूढ़े से
जो मदरडेयरी के पुल पर सड़क किनारे
छतरी ताने बैठा रहता है,
एक मैले से चादरनुमा कपड़े पर
पान-मसाले के पैकिट बिछाए।
चिलचिलाती धूप और तेज़ बारिश में
उसकी छतरी के छेदों से
अक्सर झरती है...कविता।
यह कविता मैंने चुराई है
उस उधड़े हुए मोची से
जो बस स्टॉप के बराबर में बैठा
जीता रहता है
गुजरते जूतों के तलवों के नीचे।
2750 रुपये के जूते में
कील ठुकाई के बाद
5 रुपये देने पर झीकते ग्राहक
अक्सर उगलते हैं...कविता।
यह कविता मैंने चुराई है
उस छोटी सी सेल्सगर्ल से
जो बड़े से शोरूम में
रोज बेचती है हजारों का सामान।
2 मिनट लेट होने पर छोटी सी सैलरी में
बड़ी सी कटौती का डर
जब उसे मजबूर करता है
लफंगों से भरी बस के पीछे भागने के लिए
तो अक्सर उसके कमीज की सिलाई से
फट जाती है...कविता।
यकीन मानिए
अखबार की सुर्खियों से
भरमाए हुए दिलों में
अब कविताएं नहीं उगतीं।
Thursday, 11 June 2009
क्या कोई अपने बच्चे का नाम रावण रखेगा?
अजीब सवाल है ना ! रावण, हिटलर, कुंभकर्ण, विभीषण, शकुनि, दुर्योधन, कंस, मेघनाद...मैं कभी इन नामों वाले किसी शख्स से कभी नहीं मिला। पापा की पीढ़ी में, अपनी पीढ़ी में और मेरे बाद आई पीढ़ी में भी मैंने अब तक किसी ऐसे शख्स को नहीं देखा, जिसका नाम रावण हो। सुना है कि दक्षिण भारत में किसी जगह रावण की पूजा होती है। हो सकता है, वहां किसी का नाम रावण हो !
अपने कुछ यूरोपीय मित्रों से पूछा तो हिटलर नाम पर उन्होंने ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया दी, जैसी इन कुछ हिंदुस्तानी नामों को लेकर हमारी होती है। क्यों? सिर्फ इसलिए कि ये नाम ऐतिहासिक या पौराणिक खलनायकों के हैं? क्या यह यह हमारी सनक नहीं है कि हम अपने बच्चों के नाम तक ऐसे नहीं रखना चाहते?
अच्छा एक और सवाल और...हर्षद मेहता, मनु शर्मा, प्रभाकरन, तेलगी....क्या ये खलनायक नहीं हैं? हमारे वक्त के खलनायक तो शायद यही हैं। ऐतिहासिक खलनायकों का तो हमने बस नाम ही सुना है, हमने इन लोगों के तो अपराध और उनकी वजहों से बहाए गए आंसू, दोनों देखे हैं...क्या इन नामों को लेकर भी हमारे अंदर वही विरोध है, जो रावण या हिटलर या मेघनाद जैसे नामों को लेकर है?
जब नाम रखे जाते हैं, तो उम्मीद की जाती है कि उस नाम के गुण बच्चे के अंदर आएंगे। क्या ऐसा होता है? फीसद तो नहीं पता, लेकिन अपने आसपास जितने भी लोगों को देखता हूं, एक-आध ही है, जिसके अंदर वे गुण हैं जो उनके नाम के मुताबिक होने चाहिए। आप नजर दौड़ाइए अपने चारों ओर, देखिए कितने लोग हैं जो यथा नाम तथा गुण हैं। और फिर रावण की मां ने कब सोचा होगा कि उसका बेटा इतिहास का इतना बड़ा खलनायक निकलेगा, ठीक उसी तरह जैसे प्रभाकरन की मां ने नहीं सोचा होगा!
फिर भी, कौन अपने बच्चे का नाम रावण रखना चाहेगा !
अपने कुछ यूरोपीय मित्रों से पूछा तो हिटलर नाम पर उन्होंने ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया दी, जैसी इन कुछ हिंदुस्तानी नामों को लेकर हमारी होती है। क्यों? सिर्फ इसलिए कि ये नाम ऐतिहासिक या पौराणिक खलनायकों के हैं? क्या यह यह हमारी सनक नहीं है कि हम अपने बच्चों के नाम तक ऐसे नहीं रखना चाहते?
अच्छा एक और सवाल और...हर्षद मेहता, मनु शर्मा, प्रभाकरन, तेलगी....क्या ये खलनायक नहीं हैं? हमारे वक्त के खलनायक तो शायद यही हैं। ऐतिहासिक खलनायकों का तो हमने बस नाम ही सुना है, हमने इन लोगों के तो अपराध और उनकी वजहों से बहाए गए आंसू, दोनों देखे हैं...क्या इन नामों को लेकर भी हमारे अंदर वही विरोध है, जो रावण या हिटलर या मेघनाद जैसे नामों को लेकर है?
जब नाम रखे जाते हैं, तो उम्मीद की जाती है कि उस नाम के गुण बच्चे के अंदर आएंगे। क्या ऐसा होता है? फीसद तो नहीं पता, लेकिन अपने आसपास जितने भी लोगों को देखता हूं, एक-आध ही है, जिसके अंदर वे गुण हैं जो उनके नाम के मुताबिक होने चाहिए। आप नजर दौड़ाइए अपने चारों ओर, देखिए कितने लोग हैं जो यथा नाम तथा गुण हैं। और फिर रावण की मां ने कब सोचा होगा कि उसका बेटा इतिहास का इतना बड़ा खलनायक निकलेगा, ठीक उसी तरह जैसे प्रभाकरन की मां ने नहीं सोचा होगा!
फिर भी, कौन अपने बच्चे का नाम रावण रखना चाहेगा !
Wednesday, 3 June 2009
आखिरी आदमी का गीतासार
देखा तुमने!
हवा कैसे हमें बिना छुए बढ़ गई !
पसीने में भीगे बदन की गंध
अब उसे पसंद नहीं।
सड़क भी दौड़ पड़ी
हमारे नंगे पांवों तले से निकलकर
रबर के टायरों और
नर्म ब्रैंडेड जूतों की चाह में।
हमारे मुफ्त के आराम के डर से
पेड़ों ने छिपा ली है छांव,
महंगे रेजॉर्ट्स में
रोमैंटिक जोड़ों को बेचने के लिए।
फसल भी अब उगने के लिए चाहती है
बड़ी-बड़ी मशीनों और खाद की,
खरीदी गईं इल्तिजाएं।
ठीक है कि जाता रहा
इन सबके साथ मिलकर
जिंदगी पर कुढ़ने का मज़ा।
पर अब आएगा
जिंदगी से लड़ने का मज़ा।
क्योंकि अब
अपना यहां कुछ नहीं।
क्योंकि अब
अपना यहां कोई नहीं।
हवा कैसे हमें बिना छुए बढ़ गई !
पसीने में भीगे बदन की गंध
अब उसे पसंद नहीं।
सड़क भी दौड़ पड़ी
हमारे नंगे पांवों तले से निकलकर
रबर के टायरों और
नर्म ब्रैंडेड जूतों की चाह में।
हमारे मुफ्त के आराम के डर से
पेड़ों ने छिपा ली है छांव,
महंगे रेजॉर्ट्स में
रोमैंटिक जोड़ों को बेचने के लिए।
फसल भी अब उगने के लिए चाहती है
बड़ी-बड़ी मशीनों और खाद की,
खरीदी गईं इल्तिजाएं।
ठीक है कि जाता रहा
इन सबके साथ मिलकर
जिंदगी पर कुढ़ने का मज़ा।
पर अब आएगा
जिंदगी से लड़ने का मज़ा।
क्योंकि अब
अपना यहां कुछ नहीं।
क्योंकि अब
अपना यहां कोई नहीं।
Monday, 1 June 2009
नई भर्तियां चालू आहे...
बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।
प्रभाकरण मारा गया। 25 साल पुराने संघर्ष को कुचलने में सेना को 2.5 महीने भी नहीं लगे। उस संघर्ष को...जिसके पास प्रशिक्षित छापामार सेना थी...नौसेना और वायु सेना की ताकत थी...जिसके जहाज इतनी कुव्वत और हिम्मत रखते थे कि राजधानी के आसमान में पहुंचकर राष्ट्रीय वायु सेना के बेस पर बम बरसा आते थे...जिसके लड़ाके किसी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को धमाकों में उड़ा देते थे...और...जिसके पास दुनिया के कई देशों में ऐसे समर्थक थे...जो दूतावासों पर हमला कर देते थे...बड़ी-बड़ी सरकारों को अपनी बात सुनने पर मजबूर कर देते थे...यूएन तक को बयान देने के लिए तैयार कर लेते थे...उस संघर्ष को कुचलने में श्रीलंका जैसे छोटे से देश की सेना को कुचलने में ढाई महीने भी नहीं लगे।
लिट्टे के तीन दशक तक चले संघर्ष की हालत देखकर अपने नक्सली आंदोलन की फिक्र होने लगी है। लिट्टे की लड़ाई के तरीके पर बहस हो सकती है, आंदोलन के भटक जाने की जो बात कही जाती है, उसे लेकर बहस हो सकती है, लेकिन इस बात में तो कोई संशय नहीं है कि लिट्टे का संघर्ष आखिर में एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई ही था। अपना नक्सली आंदोलन भी एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई है। इसके आकार और ताकत का लिट्टे से तो मुकाबला भी नहीं किया जा सकता। और फिर भारत और श्रीलंका की सेना का भी क्या मुकाबला है! यानी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस दिन सरकार ने कड़ा फैसला कर लिया, उस दिन से...
बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।
दो साल पहले हरियाणा के कुछ गांवों में धीरे-धीरे दलित संगठित होने लगे। बैठकें होने लगीं। तथाकथित ऊंची जातियों से उनके संघर्ष की घटनाएं बढ़ने लगीं। अब तक किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया था। फिर अचानक कई जगह से जमीन पर कब्जे की खबरें आने लगीं। ऐसा हुआ तो प्रशासन हरकत में आया। जांच शुरू हुई और पता चला कि इस सब के पीछे कुछ युवा संगठन हैं। ऐसे संगठनों की सूचि बनाई गई, तो सभी में एक बात साझी निकली। सभी ‘जनवादी’ संगठन थे। जांच के दौरान पुलिस को कई जगह से माओवादी साहित्य भी मिला।
बस फिर क्या था...सीआईडी को तुरत-फुरत में लोगों के पीछे लगा दिया गया। पुलिस ने धरपकड़ शुरू कर दी। युवा संगठनों से जुड़े लोगों में हड़कंप मच गया। अंडरग्राउंड हो जाने जैसी चीज़ें पहले उन्होंने कभी सोची भी नहीं थीं। वे लोग इधर-उधर भागने लगे। सबके फोन बंद हो गए। कोई मिलने या बात करने को तैयार नहीं था।
पुलिस ने सबको तो पकड़ा ही नहीं। कुछ लड़के-लड़कियों को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमे दर्ज कर दिए गए। हालांकि कुछ युवाओं को पुलिस काफी मशक्कत के बाद भी नहीं पकड़ पाई। बाद में सुना कि वे छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश चले गए। लेकिन और भी बहुत से ऐसे नौजवान थे, जो इस आंदोलन में सक्रिय थे और जिन्हें पुलिस आसानी से पकड़ सकती थी, लेकिन उन्हें नहीं पकड़ा गया। वैसे, यह सूचना लगातार उन तक पहुंचती रही कि उनका नाम लिस्ट में है और उन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। एक एसपी ने मुझे बताया था कि इन लोगों को गिरफ्तार करना जरूरी नहीं है, पकड़े जाने का डर ही इनके लिए काफी है और रही सही कसर कुछ गिरफ्तारियां पूरी कर देंगी। उस अफसर का कहना था कि हमारा मकसद नौजवानों को गिरफ्तार करना नहीं, इस आंदोलन की चिंगारी को बुझाना है।
यूं चिंगारियां बुझतीं तो दुनिया में कुछ न होता, लेकिन सरकार अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब रही। गतिविधियां बंद हो गईं। जो नौजवान समाज बदल देने निकले थे, उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां पकड़ लीं। जो लड़के-लड़कियां कुछ कर गुजरने को तैयार थे, उनकी शादियां हो गईं। रातों को दीवारों पर नारे लिखनेवाले सरकारी नौकरियां पाने के लिए बी.एड और क्लर्की जैसे कॉम्पिटिशंस की तैयारियों में खो गए। सालभर के अंदर सरकार ने उन्हें भी छोड़ दिया, जो गिरफ्तार किए गए थे।
ऐसा होने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। तैयारी की कमी, जल्दबाजी, अतिउत्साह आदि-आदि...लेकिन मुझे हाल ही में मिले एक नौजवान की बात बहुत याद आती है। कभी आंदोलन में जुटे लड़कों में अपने गीतों से जोश भर देने वाले उस लड़के ने कहा - स्टेट के खिलाफ लड़ना बहुत मुश्किल है।
वैसे मैं इस पूरे घटनाक्रम ने निराश नहीं हूं। मैं तो इसे बड़ी लड़ाई के लिए पहले कदम के तौर पर देखता हूं और खुश हूं कि कुछ युवाओं ने इतनी हिम्मत दिखाई। लेकिन इसका एक निराशाजनक पहलू भी है, जिसे नक्सली आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संकेत के रूप में देखा जा सकता है। जब वे लड़के-लड़कियां गिरफ्तार हुए, तब उनके लिए समाज में एक भी आवाज नहीं उठी। उनकी तरफ से भी नहीं जो उनके हिमायती माने जाते थे। उस दौरान रिपोर्टिन्ग करते हुए मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला, जो सरकारी विभागों में अफसर थे, यूनिवर्सिटियों में प्रफेसर थे, कॉलेजों में लेक्चरर्स थे, जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता थे और इन नौजवानों के साथ काम करते थे। इनकी हौसलाअफजाई में उन लोगों की अहम भूमिका थी। लेकिन जब पुलिस सक्रिय हुई, तो उन लोगों ने सबसे पहले इनसे नाता तोड़ा। इनके बारे में बात करने तक को वे तैयार नहीं थे। इन नौजवानों से अपने रिश्तों को वे उसी तरह छिपा रहे थे, जैसा पंजाब के आतंकवाद के दौर में हुआ करता था।
अगर आंदोलन के मकसद को समझाया गया होता... बात को उस आम आदमी तक पहुंचाया गया होता, जिनकी खातिर लड़ा जा रहा था...उन युवाओं तक पहुंचाया गया होता, जिनकी यह लड़ाई थी, तो एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो सकता था। छात्र सड़कों पर उतर आते, मोर्चे निकलते, हड़तालें होतीं और पता नहीं क्या हो जाता...
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जानते हैं हुआ क्या? इस्माइलाबाद में गिरफ्तार किए गए एक मजदूर ने मुझे बताया कि उसे छूटने के लिए उन्हीं लोगों के हाथ-पांव जोड़ने पड़े, जिनके खिलाफ वह लड़ रहा था, क्योंकि उसके साथियों-सहयोगियों में से कोई भी उसकी मदद के लिए मौजूद नहीं था।
यह हाल पूरे नक्सली आंदोलन का है। डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए उन्हीं पूंजीवादी देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ता नारे लगाते दिखते हैं, जिनके बनाए सिस्टम के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है। वह भी बाहर आकर यही कहते हैं कि हथियारों से लड़ाई जीती नहीं जा सकती। कौन जानता है कि जंगल में बैठे वे पढ़े-लिखे लोग क्यों हथियार उठाए हुए हैं? क्यों वे रोजाना 10-15 पुलिसवालों को मार देते हैं? क्या पुलिसवालों को मारकर ही क्रांति हासिल होगी? मुझे बहुत हैरत होगी, अगर मुझे पता चले कि इन लोगों को नहीं पता है कि मारे गए पुलिसवालों की जगह नए पुलिसवालों को आने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। इस ‘यूज़लेस किलिंग’ से क्रांति कैसे हासिल होगी, मुझे समझ नहीं आता।
मुझे बस इतना समझ आता है कि दशकों की लड़ाई के बाद भी एक जंगल के बाहर एक ऐसा समर्थन तैयार नहीं किया जा सका है, जो उनकी बात को समझता और मानता हो। एक ऐसा समर्थन जो सरकार के किसी कड़े फैसले के खिलाफ सड़कों पर नजर आएगा। एक ऐसा समर्थन जो ताकत बन जाएगा, जब बदलाव के लिए बड़े धक्के की जरूरत होगी। तब तक आप रोज पुलिसवालों को उड़ाते रहिए, नई पुलिसभर्तियां जारी हैं।
(आप में से बहुत से लोग नक्सलवादी आंदोलन की बेहतर समझ रखते हैं। हो सके तो मेरे इन अनुभवों के आधार पर बनी समझ को स्पष्ट करने में मदद करें।)
प्रभाकरण मारा गया। 25 साल पुराने संघर्ष को कुचलने में सेना को 2.5 महीने भी नहीं लगे। उस संघर्ष को...जिसके पास प्रशिक्षित छापामार सेना थी...नौसेना और वायु सेना की ताकत थी...जिसके जहाज इतनी कुव्वत और हिम्मत रखते थे कि राजधानी के आसमान में पहुंचकर राष्ट्रीय वायु सेना के बेस पर बम बरसा आते थे...जिसके लड़ाके किसी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को धमाकों में उड़ा देते थे...और...जिसके पास दुनिया के कई देशों में ऐसे समर्थक थे...जो दूतावासों पर हमला कर देते थे...बड़ी-बड़ी सरकारों को अपनी बात सुनने पर मजबूर कर देते थे...यूएन तक को बयान देने के लिए तैयार कर लेते थे...उस संघर्ष को कुचलने में श्रीलंका जैसे छोटे से देश की सेना को कुचलने में ढाई महीने भी नहीं लगे।
लिट्टे के तीन दशक तक चले संघर्ष की हालत देखकर अपने नक्सली आंदोलन की फिक्र होने लगी है। लिट्टे की लड़ाई के तरीके पर बहस हो सकती है, आंदोलन के भटक जाने की जो बात कही जाती है, उसे लेकर बहस हो सकती है, लेकिन इस बात में तो कोई संशय नहीं है कि लिट्टे का संघर्ष आखिर में एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई ही था। अपना नक्सली आंदोलन भी एक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई है। इसके आकार और ताकत का लिट्टे से तो मुकाबला भी नहीं किया जा सकता। और फिर भारत और श्रीलंका की सेना का भी क्या मुकाबला है! यानी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस दिन सरकार ने कड़ा फैसला कर लिया, उस दिन से...
बहुत से लोगों ने इस बात को अतिसरलीकरण कहकर खारिज कर दिया है। उनकी बात भी गलत नहीं। वाकई चीजें इतनी सरल नहीं होतीं। कुछ तो वजह होगी ही कि सरकार ने आज तक कोई फैसला नहीं किया। फिर भी मैं एक अनुभव आप लोगों से बांटना चाहता हूं, जो निष्कर्ष भले न हो, संकेत तो है ही।
दो साल पहले हरियाणा के कुछ गांवों में धीरे-धीरे दलित संगठित होने लगे। बैठकें होने लगीं। तथाकथित ऊंची जातियों से उनके संघर्ष की घटनाएं बढ़ने लगीं। अब तक किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया था। फिर अचानक कई जगह से जमीन पर कब्जे की खबरें आने लगीं। ऐसा हुआ तो प्रशासन हरकत में आया। जांच शुरू हुई और पता चला कि इस सब के पीछे कुछ युवा संगठन हैं। ऐसे संगठनों की सूचि बनाई गई, तो सभी में एक बात साझी निकली। सभी ‘जनवादी’ संगठन थे। जांच के दौरान पुलिस को कई जगह से माओवादी साहित्य भी मिला।
बस फिर क्या था...सीआईडी को तुरत-फुरत में लोगों के पीछे लगा दिया गया। पुलिस ने धरपकड़ शुरू कर दी। युवा संगठनों से जुड़े लोगों में हड़कंप मच गया। अंडरग्राउंड हो जाने जैसी चीज़ें पहले उन्होंने कभी सोची भी नहीं थीं। वे लोग इधर-उधर भागने लगे। सबके फोन बंद हो गए। कोई मिलने या बात करने को तैयार नहीं था।
पुलिस ने सबको तो पकड़ा ही नहीं। कुछ लड़के-लड़कियों को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमे दर्ज कर दिए गए। हालांकि कुछ युवाओं को पुलिस काफी मशक्कत के बाद भी नहीं पकड़ पाई। बाद में सुना कि वे छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश चले गए। लेकिन और भी बहुत से ऐसे नौजवान थे, जो इस आंदोलन में सक्रिय थे और जिन्हें पुलिस आसानी से पकड़ सकती थी, लेकिन उन्हें नहीं पकड़ा गया। वैसे, यह सूचना लगातार उन तक पहुंचती रही कि उनका नाम लिस्ट में है और उन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। एक एसपी ने मुझे बताया था कि इन लोगों को गिरफ्तार करना जरूरी नहीं है, पकड़े जाने का डर ही इनके लिए काफी है और रही सही कसर कुछ गिरफ्तारियां पूरी कर देंगी। उस अफसर का कहना था कि हमारा मकसद नौजवानों को गिरफ्तार करना नहीं, इस आंदोलन की चिंगारी को बुझाना है।
यूं चिंगारियां बुझतीं तो दुनिया में कुछ न होता, लेकिन सरकार अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब रही। गतिविधियां बंद हो गईं। जो नौजवान समाज बदल देने निकले थे, उन्होंने छोटी-मोटी नौकरियां पकड़ लीं। जो लड़के-लड़कियां कुछ कर गुजरने को तैयार थे, उनकी शादियां हो गईं। रातों को दीवारों पर नारे लिखनेवाले सरकारी नौकरियां पाने के लिए बी.एड और क्लर्की जैसे कॉम्पिटिशंस की तैयारियों में खो गए। सालभर के अंदर सरकार ने उन्हें भी छोड़ दिया, जो गिरफ्तार किए गए थे।
ऐसा होने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। तैयारी की कमी, जल्दबाजी, अतिउत्साह आदि-आदि...लेकिन मुझे हाल ही में मिले एक नौजवान की बात बहुत याद आती है। कभी आंदोलन में जुटे लड़कों में अपने गीतों से जोश भर देने वाले उस लड़के ने कहा - स्टेट के खिलाफ लड़ना बहुत मुश्किल है।
वैसे मैं इस पूरे घटनाक्रम ने निराश नहीं हूं। मैं तो इसे बड़ी लड़ाई के लिए पहले कदम के तौर पर देखता हूं और खुश हूं कि कुछ युवाओं ने इतनी हिम्मत दिखाई। लेकिन इसका एक निराशाजनक पहलू भी है, जिसे नक्सली आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संकेत के रूप में देखा जा सकता है। जब वे लड़के-लड़कियां गिरफ्तार हुए, तब उनके लिए समाज में एक भी आवाज नहीं उठी। उनकी तरफ से भी नहीं जो उनके हिमायती माने जाते थे। उस दौरान रिपोर्टिन्ग करते हुए मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला, जो सरकारी विभागों में अफसर थे, यूनिवर्सिटियों में प्रफेसर थे, कॉलेजों में लेक्चरर्स थे, जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता थे और इन नौजवानों के साथ काम करते थे। इनकी हौसलाअफजाई में उन लोगों की अहम भूमिका थी। लेकिन जब पुलिस सक्रिय हुई, तो उन लोगों ने सबसे पहले इनसे नाता तोड़ा। इनके बारे में बात करने तक को वे तैयार नहीं थे। इन नौजवानों से अपने रिश्तों को वे उसी तरह छिपा रहे थे, जैसा पंजाब के आतंकवाद के दौर में हुआ करता था।
अगर आंदोलन के मकसद को समझाया गया होता... बात को उस आम आदमी तक पहुंचाया गया होता, जिनकी खातिर लड़ा जा रहा था...उन युवाओं तक पहुंचाया गया होता, जिनकी यह लड़ाई थी, तो एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो सकता था। छात्र सड़कों पर उतर आते, मोर्चे निकलते, हड़तालें होतीं और पता नहीं क्या हो जाता...
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जानते हैं हुआ क्या? इस्माइलाबाद में गिरफ्तार किए गए एक मजदूर ने मुझे बताया कि उसे छूटने के लिए उन्हीं लोगों के हाथ-पांव जोड़ने पड़े, जिनके खिलाफ वह लड़ रहा था, क्योंकि उसके साथियों-सहयोगियों में से कोई भी उसकी मदद के लिए मौजूद नहीं था।
यह हाल पूरे नक्सली आंदोलन का है। डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए उन्हीं पूंजीवादी देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ता नारे लगाते दिखते हैं, जिनके बनाए सिस्टम के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है। वह भी बाहर आकर यही कहते हैं कि हथियारों से लड़ाई जीती नहीं जा सकती। कौन जानता है कि जंगल में बैठे वे पढ़े-लिखे लोग क्यों हथियार उठाए हुए हैं? क्यों वे रोजाना 10-15 पुलिसवालों को मार देते हैं? क्या पुलिसवालों को मारकर ही क्रांति हासिल होगी? मुझे बहुत हैरत होगी, अगर मुझे पता चले कि इन लोगों को नहीं पता है कि मारे गए पुलिसवालों की जगह नए पुलिसवालों को आने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। इस ‘यूज़लेस किलिंग’ से क्रांति कैसे हासिल होगी, मुझे समझ नहीं आता।
मुझे बस इतना समझ आता है कि दशकों की लड़ाई के बाद भी एक जंगल के बाहर एक ऐसा समर्थन तैयार नहीं किया जा सका है, जो उनकी बात को समझता और मानता हो। एक ऐसा समर्थन जो सरकार के किसी कड़े फैसले के खिलाफ सड़कों पर नजर आएगा। एक ऐसा समर्थन जो ताकत बन जाएगा, जब बदलाव के लिए बड़े धक्के की जरूरत होगी। तब तक आप रोज पुलिसवालों को उड़ाते रहिए, नई पुलिसभर्तियां जारी हैं।
(आप में से बहुत से लोग नक्सलवादी आंदोलन की बेहतर समझ रखते हैं। हो सके तो मेरे इन अनुभवों के आधार पर बनी समझ को स्पष्ट करने में मदद करें।)
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